Book Title: Jain Darshan Chintan Anuchintan
Author(s): Ramjee Singh
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 185
________________ १७६ जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन मुखमासीद्" । असल में सृजन एक महान् आध्यात्मिक कार्य है जिसके लिये अन्तःप्रेरणा और अन्तप्रेरणा के लिये स्वतंत्रता परमावश्यक है। गुरुदेव ने इसीलिये तो जगन्नियन्ता से प्रार्थना की थी- "हे प्रभो, मुझे वहां ले चलो जहां मन स्वतंत्र है । और स्वाभिमान से हमारा सिर ऊंचा हो"। संक्षेप में सारस्वत-साधना न तो दंड-भय से संभव है, न लाभ-हानि के संकीर्ण वणिक् वृत्ति से । यह तो मानव की स्वतन्त्र और सृजन वृत्ति की अभिव्यक्ति जैन विश्वभारती की कल्पना ही एक सर्जनात्मक वृत्ति है। यह कोई सुनियोजित कल्पना के आधार पर नहीं बनी है। एक ही चिंतन था कि मरुस्थल में कल्पवृक्ष की कामना । मानसरोवर में तो सब कुछ सम्भव है किन्तु मरुस्थल में इसकी कल्पना अद्वितीय है। अतः इसका प्रारंभ भी अपूर्व है और इसका आदर्श "जैन विद्या के नालन्दा-तक्षशिला का निर्माण करना भी अद्वितीय है। जैन विश्वभारती में ऐसा भौतिक और आध्यात्मिक आकर्षण हो कि इस मरुस्थल में भी लोग यहां आने से नहीं घबड़ायें । इसलिये विश्वविद्यालय को पत्राचार-पाठ्यक्रम एवं प्रसार कार्यक्रमों के द्वारा व्यापक करना होगा । विश्वविद्यालय को पार्श्व और विशेषकर ग्रामीण जनता से जोड़ना होगा ताकि इसे शाश्वत पोषण मिलता रहे। कार्य चिरजीवि तब होता है जब उसमें जनता का सहभाग एवं सहयोगिता होती है । ___ यह शुभ लक्षण है कि सदियों के बाद जैन-विद्या और अहिंसा की संस्कृति की ओर आकर्षण बढ़ रहा है लेकिन साथ-साथ यह दुर्भाग्य है कि जैन-विद्या के विद्वानों की आज बड़ी कमी है। अतः सामान्य रूप से भारतीय समाज का और विशेष रूप से जैन समाज का यह दायित्व है कि जैन विद्या, प्राकृत, अनेकांत और अहिंसा आदि के विद्वानों को तैयार किया जाय । दो वर्षों में ४-५ विद्वान भी तैयार किये जा सकें तो सार्थकता सिद्ध होगी। जैन केन्द्रों में जैन विश्वभारती अपने विद्वानों को भेजकर एक सांस्कृतिक-क्रांति का श्रीगणेश करे। यही नहीं जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय इस स्तर का बने ताकि दूसरे-दूसरे देशों के विद्यार्थी भी यहां आ सकें। प्रशिक्षण और प्रयोग को भी यहां प्राथमिकता मिलनी ही चाहिये ताकि एक आध्यात्मिक वैज्ञानिक व्यक्तित्व के निर्माण की यह कार्यशाला बन जाय । इसलिये जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय के लाभ-हानि का तलपट वर्ष और महीने का नहीं, कम से कम एक शताब्दी का बनना चाहिये। शांति शोध, अपरिग्रह विज्ञान, जीवन विज्ञान और प्रेक्षाध्यान को लेकर तो जैन विश्वभारती अन्तराष्ट्रीय क्षेत्र में सफलता पूर्वक जा सकता है। जैन विश्वभारती के निर्माण में जैन समाज हरगिज हल्के ढंग से नहीं सोचे । यदि यह नियति थी कि जैन विश्वभारती बने तो यह भी नियति है कि जैन विश्वभारती एक उदाहरण बन जाये । यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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