Book Title: Jain Darshan Chintan Anuchintan
Author(s): Ramjee Singh
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 186
________________ जैन विश्वभारती बनाम जैन विश्वभारती १७७ आचार्य तुलसी की आकांक्षा है। इसलिये मातृ-संस्था को यदि अपना सर्वस्व भी समर्पण करना पड़े तो करे क्योंकि जैनविद्या की सारस्वत-साधना करना ही इसका उद्देश्य था। धर्मसंघ के धार्मिक कार्यकलापों के लिये तो अनेक संस्थायें हैं ही-तेरापंथी महासभा, तेरापंथी युवा मंडल, तेरापंथी महिला मंडल । यही कारण है कि जैन विश्वभारती के उद्देश्य एवं कार्यक्रमों के व्यवस्थापन और इसके संविधान में भी कहीं पांथिक और तेरापंथ के साम्प्रदायिक मनोभाव या शब्द के दर्शन नहीं । अतः यह मानना चाहिये कि जैन विश्वभारती को विश्वविद्यालय स्वरूप प्रदान करने में जैन विश्वभारती का अपना मूल उद्देश्य पूरा होता है। अतः इसके संवर्द्धन और संस्कार में अधिकाधिक उदारता और वात्सल्यमय त्याग अपना ही कर्तव्य पालन है। हां विश्वविद्यालय की अपनी सीमायें हैं । यह बच्चों से लेकर माध्यमिक स्तर तक पाठ्यक्रम को अपने द्वारा संचालित नहीं कर सकता। अतः मातृ-संस्था को प्राथमिक शिक्षा का दायित्व रखना ही होगा। इससे विश्वविद्यालय को लाभ होगा और उसे यहां से सुपात्र विद्यार्थी अबाध रूप से मिलते रहेंगे । इसी प्रकार मुमुक्षु बहनों, साधुसाध्वियों, श्रमण एवं श्रमणियों की शिक्षा तथा नयी-पीढ़ी एवं देशभर में में जैन-धर्म की परीक्षाओं एवं ज्ञानशालाओं के प्रबन्ध में मातृ-संस्था अपना दायित्व पूर्ववत् निभाती रहेगी। ये सभी पूरक कार्य हैं। जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय का क्षेत्र जैन-विद्या और अहिंसा के क्षेत्र में उच्च शिक्षा का है जिसमें अध्यापन, शोध, प्रशिक्षण और प्रसार-कार्य मुख्य हैं। इसलिये मातृ-संस्था ने विश्वविद्यालय के जिम्मे उच्च शिक्षा के सम्बर्द्धन और आवश्यक उपकरण, जैसे अनेकांत शोधपीठ (पुस्तकालय), शोधप्रकाशन, अध्यात्म-नीडम् (जीवन विज्ञान एवं प्रेक्षाध्यान की प्रयोगशाला) के समस्त संसाधन एवं कार्यकर्ताओं को सौंप दिया। उनके भवन भले ही अभी मातृ-संस्था के स्वत्वाधिकार में हों लेकिन अनियतकाल के लिये उपयोग का अधिकार तो माता ने अपनी संतान को दिया ही है। यही नहीं, पारमार्थिक शिक्षण संस्था को बहनों के लिये जो दिव्य "अमृतायन" भवन का निर्माण हुआ था मातृ-संस्था उसे अपने शिशु विश्वविद्यालय को उसमें रखकर अमृतसुख का आनन्द दे रही है। मानो मां अपने नवजात शिशु को अपनी गोद में रखकर उसे छाती से लगाये हुए हो। जब विश्वविद्यालय के लिये स्वतंत्र परिसर के लिये तुरंत भूमि प्राप्त होने में कठिनाई दीखी तो मातृ-संस्था के एक समर्थ एवं युवा अधिकारी ने कहा कि क्यों न हम पुस्तकालय, कला-प्रदर्शनी, अध्यात्म नीडम् एवं अमृतायन के उपयोग के साथ उन भवनों को स्थायी रूप से विश्वविद्यालय को देकर चिन्तामुक्त हो जाय । समाज फिर नवीन एवं "नव-अमृतायन' का निर्माण कर लेगा। वे भवन नहीं भी मिलें लेकिन भाव तो भवन से बड़ा है। इसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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