Book Title: Jain Darshan Chintan Anuchintan
Author(s): Ramjee Singh
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 167
________________ १५८ जैनदर्शन : चिन्तन - अनुचिन्तन किया । ठीक गांधी ने भी अपने समय में उसी सूत्र को पकड़कर जनान्दोलन किया । धार्मिक चेतना मंद पड़ते ही लोग महावीर की प्रवृत्ति के योग्य नहीं रह सके । लोग सिद्धांत में नारी - उद्धार की बात करते रहे किन्तु व्यवहार में अबलापन के पोषक रहे, ऊंच-नीच और छुआछूत दूर करने की घोषणा भी होती रही, दूसरी तरफ जातिवाद ब्राह्मण परम्परा के प्रभाव से बच नहीं सके । यज्ञ की हिंसा जरूर कम हुई, लेकिन परिग्रह के कारण शोषण की हिंसा भभकती रही । अपरिग्रह के नाम पर अपरिग्रह का कर्मकांड आया, लोग नंगे पैर घूमे, मुंह पर कपड़े ढके, लेकिन सम्पत्ति का संग्रह और परिग्रह उद्याम रीति से चलता रहा । दीर्घ परतन्त्रता के कारण भी धर्म - चेतना अशक्त होती गई और धर्म सम्प्रदाय के छोटे-छोटे घरौंदे बनने लगे, धर्म के निमित्त अधर्म का पोषण निवृत्ति के नाम पर निष्क्रियता, सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि उदात्त जीवनमूल्यों के ऊपर अश्रद्धा होने लगी । लोगों ने सोच लिया कि सिद्धांत और व्यवहार जगत् अलग-अलग हैं । ऐसी ही दारुण परिस्थितियों में महात्मा गांधी का आविर्भाव हुआ । उन्होंने साहसपूर्वक राजनीति के साथ अध्यात्म को, संघर्ष के साथ अहिंसा को और जीवन व्यवहार के साथ अपरिग्रह को जोड़ने की बात निर्भीकतापूर्व रखी । पहले तो उन्हें सर्वप्रदर्शी और अव्यावहारिक बनाया लेकिन जैसे-जैसे कर्मवीर गांधी एक से एक सामाजिक राजनैतिक अभियान छेड़कर सफल होते गए सारी दिशायें उनके श्रीचरणों में झुकती गईं। उनका व्यक्तिगत जीवन यदि "सत्य के साथ प्रयोग" रहा तो उनका सम्पूर्ण असहयोग एवं सत्याग्रह आन्दोलन भगवान् महावीर की धर्म चेतना का " अहिंसा के साथ प्रयोग " मानना चाहिए | सत्य अहिंसा की सार्वभौमिक और सामाजिक कार्यक्षमता पर से लोगों का अविश्वास उठने लगा । जैन समाज में सत्य और अहिंसा के प्रति जन्मसिद्ध आदर था ही, वह मूर्छित जरूर थी । गांधी ने उसकी मूर्च्छा को दूर कर दिया । फिर जैन समाज गर्व से उद्घोष करने लगा - " अहिंसा परमोधर्मः । अभी तक अहिंसा दुर्बलता का प्रतीक थी, गांधी ने उसे विराट् रूप देकर शक्तिमान् बना दिया । / जैन समाज ने नर-नारी की समानता की बातें जरूर रखी, हिन्दुओं ने तो बढ़कर नारी को देवी कह दिया-- "यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमंते तत्र देवता", लेकिन व्यवहार में परित्यका लाचारकुमारी ही साध्वी बनती थी, लेकिन गांधी ने बताया कि सच्चा बल तो शरीर बल नहीं आत्मबल है, उस दृष्टि से यदि नारी अबला है तो पुरुष भी निर्बल है। जहां तक दया, सहानुभूति, त्याग आदि का प्रश्न है, उस दिशा में तो नारी पुरुषों से आगे हैं । इसलिए गांधी ने नारी को सामाजिक प्रतिष्ठा देकर उसे सचमुच देवी बनाया जैन समाज को भी इससे नव-जीवन मिला और साध्वी को लगा कि उनका जीवन श्रेष्ठ है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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