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जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन इनके विपरीत निवर्तक-धर्म लोकान्तर एवं जन्मान्तर के साथ जन्मचक्र के आधार आत्म-तत्व को तो मानता है लेकिन जन्मान्तर से प्राप्य उच्च, उच्चतर और चिरस्थायी सुख से संतुष्ट नहीं होता। वह ऐसे सुख की खोज में रहता है जो एक बार प्राप्त होने पर कभी नष्ट न हो। यही मोक्ष की कल्पना हैं जो स्वर्ग या अपवर्ग से आगे है । इस दृष्टि से न केवल बौद्ध एवं जैन बल्कि उपनिषद्, वेदान्त, न्याय वैशेषिक एवं सांख्य-योग भी निवर्तक-धर्म पर ही अवस्थित हैं।
प्रवर्तक धर्म जहां समाजगामी है, निवर्तक-धर्म व्यक्तिगामी है जो आत्म-साक्षात्कार की उत्कृष्ट कृति में से उत्पन्न होने के कारण आत्म-तत्व के ऊपर चितन, मनन और निदिध्यासन के लिये प्रेरित करता है। गृहस्थाश्रम भी इसके लिये अभीष्ट नहीं जबकि प्रवर्तक-धर्म उसके उल्लंघन की कल्पना नहीं करता । संक्षेप में निवर्तक-धर्म के निम्नलिखित विचार एवं आचार हैं१. आत्मशुद्धि २. आत्म-शुद्धि के मार्ग में बाधक आध्यात्मिक मोह, अविद्या और तृष्णा का मूलोच्छेद ३. आध्यात्मिक ज्ञान ४. आध्यात्मिक अनुभूति प्राप्त मनुष्यों के वचनों का प्रमाण ५. जन्मना जाति प्रथा के खिलाफ योग्यता एवं गुरुपद की कसौटी को आध्यात्मिक जीवन-शुद्धि मानना । ६. मद्य-मांस का सामाजिक जीवन में निषेध ।
ब्राह्मण-परम्परा के मूल में "ब्रह्म" है जबकि श्रमण-परम्परा समता, शमन और श्रम के आस-पास विकसित हुई। ब्राह्मण-परम्परा में स्तुति, प्रार्थना और यज्ञ-यागादि कर्म का महत्व है, जिस कारण पुरोहित वर्ग का अभ्युदय हुआ और समाजपुरूष का मुख "ब्राह्मण" को माना गया, जबकि श्रमण, धर्म, जाति, वर्ण, लिंग का भेद नहीं मानकर सब को समान रूप से सत्कर्म एवं धर्म का अधिकारी मानता हैं। श्रमण धर्म ऐहिक एवं पारलौकिक अभ्युदय को सर्वथा हेय मानकर निःश्रेयस को एकमात्र उपादेय मानता है इसलिये साध्य की तरह साधनगत साम्य पर भी उतना ही जोर देता है।
निःश्रेयस के साधनों में मुख्य है-अहिंसा । किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार से कष्ट नहीं पहुंचाना ही अहिसा है । लेकिन अहिंसा की भावना के साथ-साथ तप और त्याग की भावना अनिवार्य रूप से ग्रथित है, जिसके द्वारा आत्मशुद्धि या साम्य पूर्णतया सिद्ध होगा। असल में रागद्वेष आदि मलिन वृतियों पर विजय पाना ही मुख्य साध्य है। इस साध्य की सिद्धि जिस अहिंसा, जिस तप, या जिस त्याग से न हो सके वह आध्यात्मिक दृष्टि से अनुपयोगी है। श्रमण-धर्म की मूलभूत भावना साम्य-दृष्टि ही है । अतः साम्य दृष्टि मूलक और साम्य दृष्टि पोषक जो आचार-विचार हो वे सब “सामाइक' हैं । जिस प्रकार वैदिक परम्परा में गायत्री सबके लिये आवश्यक है, उसी
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