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जैनदर्शन : चिन्तन - अनुचिन्तन
दी है । स्थानांग सूत्र' – में " हेतु " शब्द प्रयुक्त है जिसका प्रयोग प्रमाणसामान्य तथा अनुमान के प्रमुख अंग हेतु दोनों अर्थों में प्रयुक्त हुआ है । हेतु के चार भेद बताए गए हैं ।' भगवती-सूत्र' में चार प्रमाण में अनुमान को स्थान दिया गया है । अनुयोग सूत्र में अनुमान के तीन भेद ( प्रव्ववं, सेसवं, द्विसाम्भi) माने गए हैं जिसके अनेकानेक भेद-प्रभेद हैं । कालभेद से भी अनुमान के तीन भेद माने गए हैं, जो पारिभाषिक नहीं अभिधामूलक हैं । यह ठीक है कि वात्स्यायन का वर्गीकरण एवं स्वरूप व्याख्या अनुयोगद्वार की व्याख्या से अधिक पुष्ट और व्यवस्थित है, लेकिन इससे अनुयोगद्वार की प्राचीनता तो सिद्ध हो ही जाती है। अनुमान के अवयवों के बारे में आगमों में तो कोई कथन उपलब्ध नहीं हैं किन्तु तत्त्वार्थ सूत्र' में पक्ष हेतु एवं दृष्टांत का उल्लेख है । समन्तभद्र", पूज्यवाद', और सिद्धसेन दिवाकर ने भी इन्हीं तीन अवयवों का निर्देश किया है । भद्रवाहु ने पांच प्रकार से अवयवों की चर्चा की है (यथा, तीन, पांच, दस ) लेकिन यह वात्सायनादि के दशावयव से भिन्न है |
जैन परम्परा में अनुमान का तार्किक विकास समन्तभद्र से आरम्भ मानना चाहिए, जिसमें साध्य, साधन, पक्ष, उदाहरण, अविनाभाव आदि का निर्देश है । सिद्धसेन के न्यायावतार में अनुमान का स्वरूप, भेद, लक्षण, पक्ष का स्वरूप, हेतु के तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्ति का निर्देश, दृष्टांत, व्याप्ति, हेतु आदि का प्रतिपादन है । अकलंक के न्याय-विवेचन ने ही "अकलंकन्याय" का प्रवर्तन कर दिया जिसमें न्याय - विनिश्चय, लघीयस्त्रय, सिद्धि विनिश्चय आदि जैन न्याय के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं । हरिभद्र, विद्यानन्दि, माणिक्यनन्दि, प्रभाचंद्र, अभयदेव, देवसूरि, कंदर.ज, हेमचंद्र, धर्मभूषण, यशोविजय आदि प्रमुख हैं ।
१. धर्मभूषण, न्याय दीपिका, दिल्ली वीर सेवा मंदिर, पृ० ९५-९९ २. माणिक्यनन्दि, परीक्षामुखम् – ३१५७-५८
३. भगवती सूत्र, ५।३ पृ० १९१-९२
४. अनुयोगद्वार सूत्र, वही, पृ०५३९
५. वही, पृ० ५४१-५४२
६. तत्त्वार्थ सूत्र, १०१५,६,७
७. आप्त मीमांसा, ५, १७, १८, युक्त्यनुशासन, ५३
८. सर्वार्थसिद्धि, १०।५,६,७
९. न्यायावतार, १३, १४, १७, १८, १९ १०. दशवैकालिक नियुक्ति, गाथा, ४९-१३७
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