Book Title: Jain Darshan Chintan Anuchintan
Author(s): Ramjee Singh
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 126
________________ निरामिष आहार का दर्शन ११७ एवं करूणा की मांग है कि हम अपने आहार के लिये किसी प्राणी की जान न लें । हम अपने आध्यात्मिक जीव एवं अन्य प्राणियों को अपना आखेट मानलें-यह धर्म नहीं हो सकता । जब एक प्राणी को शूली पर चढ़ाया जाता है तो सम्पूर्ण सृष्टि ही शूली पर चढ़ती है। मांसाहार में घृणा एवं युद्ध के बीज छिपे हैं । यदि हम पूछे कि आखिर “पशु किस लिये बने ?" तो क्या हम यह नहीं कह सकते कि “मनुष्य किसके लिये हैं ?" जो वेदों में मांसाहार सिद्ध करना चाहते हैं वे भूल जाते हैं कि "यस्मिन् सर्वाणि भूतानि आत्मैव भूत विजान्ता" (यजुर्वेद ४०/७) "मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्", "मा हिंसेहि पुरुषम्" (यजुर्वेद, १६/३) "इमं मा हिंसेर द्विपादं पशु" (यजुर्वेद १२/४६)," "अरे गोहा नराः बधो वो अस्तु" (ऋग्वेद ८/५६/१७), १/१ ११/१०), "यथा मांसं यथा सूरा यथा यक्षाः अभिदेवने (अथर्व, १/६/७०) आदि को भी देखा जाय तो भ्रम निरसन हो जाय । ३. नैतिक आधार धर्म और नैतिकता एक ही सिक्के के दो पहल हैं। फिर भी शास्त्रों एवं जीर्ण-शीर्ण धार्मिक परम्पराओं में यदि कहीं मांसाहार को प्रश्रय भी मिल जाता है तो उसका निराकरण हम नैतिक दृष्टि से कर सकते हैं। इसलिये राजगोपालाचारी अपनी मौलिक शैली में निरामिष आहार के लिये कोई आहार-विज्ञान अथवा स्वास्थ्य-विज्ञान की ओर से तर्क देना ही भूल मानते हैं । उनका तो कहना है कि इसे हमें विशुद्ध नैतिक आधार पर देखना चाहिये जहां क्रूरता की जगह करूणा, घृणा के स्थान पर दया, कुरूपता के बदले सुन्दरता का विधान है। गांधीजी का भी कहना है कि निरामिष आहार पारीर को पुष्ट करता है या नहीं, इससे अधिक महत्त्व इसको देना चाहिये कि यह नैतिक शक्ति का संवर्द्धन करता है । अहिंसा के व्रत को अपने आहार के लिये परित्याग करना हो तो अनैतिकता है। निरामिष आहार प्रत्यक्ष रूप से हमारे भावों-संवेगों पर नियमन करना सिखाता है । निरामिष आहार अहिंसा का ही आयाम है । जब कुछ लोग कहते हैं कि सृष्टि में एक व्यापक आहार-चक्र है । एक प्राणी दूसरे प्राणी को अपना आहार बनाता है । इस तर्क का खंडन करते हुए प्राचीन यूनानी दार्शनिक पैथागोरस कहते हैं"बाघ एवं सिंह के लिये आखेट उनकी प्रकृति है किन्तु मनुष्यों के लिये यह विलासिता और अपराध है । "संस्कृति का प्रथम आदेश है कि" तुम क्रूर मत बनो । संस्कृति की सर्वोत्तम नैतिकता तो यही है कि हम जो अपने लिये दूसरों से व्यवहार की अपेक्षा रखते हैं, वही हम दूसरों के लिये भी करें ।" थामस न्यूटन ने कहा है कि पशुओं के प्रति क्रूरता केवल मूर्खता ही नहीं यह ईश्वर का अपमान है । राबर्ट इंगरशोल ने कहा है कि यदि हम किसी के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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