Book Title: Jain Darshan Chintan Anuchintan
Author(s): Ramjee Singh
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 141
________________ १३२ जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन व्यवहार में अभिव्यक्त करने की कोशिश की गयी है। व्यवहार-साम्य :-जैन संस्कृति का सब आचार-व्यवहार साम्यदष्टि मूलक अहिंसा के पास ही निर्मित हुआ है। मनुष्य, पशु-पक्षी कीट-पतंग ही नहीं, वनस्पति और पार्थिव जलीय आदि सूक्ष्मातिसूक्ष्म प्राणियों तक की हिंसा से आत्मौपम्य या प्राणभूत अहिंसा भावना को चोट पहुंचती है। इसीकी व्यवस्था के लिए जैन परम्परा में चार विधायें फलित हुई हैं, जिनके आधार पर ही ज्ञान प्राप्त कर हम आचार की अहिंसा साध सकते हैं ---आत्म-मीमांसा, कर्म-मीमांसा, चरित्र-मीमांसा एवं लोक-मीमांसा । (क) आत्म मीमांसा–आत्मा का विचार जैन दर्शन में उपनिषद् वेदान्त के ब्रह्म की तरह ही सर्वग्राही है। जीव-समानता के सैद्धान्तिक तात्त्विक विवेचन को जीवन-व्यवहार में यथासंभव उतारना ही अहिंसा है । सृष्टि के कण-कण में आभा व्याप्त है तो फिर हिंसा का स्थान ही कहां है ? यदि समानता की अनुभूति ही नहीं हो तो फिर साम्य का सिद्धांत ही झूठा है। आचारांग में कहा ही गया है कि "जैसे तुम अपने दुःख का अनुभव करते हो, वैसा ही पर-दुःख का अनुभव करो।" उपनिषद् और वेदान्त भी अहिंसा का समर्थन अद्वैत के आधार पर करता है क्योंकि सारे जीव ब्रह्म के रूप हैं। सर्वं खलु इदं ब्रह्म ! ईशावास्यमिदं सर्वम् । “तत्त्वमसि, अहं ब्रह्मास्मि' तो खैर अद्वैत की पराकाष्ठा है। लेकिन विशिष्टाद्वैत में भी जीव ईश्वर का ही अंश है । अद्वैत-परम्परा जीव-भेद को मिथ्या मानकर अहिंसा का उद्बोधन करती है । जैन परम्परा में जीवात्मा का वास्तविक भेद स्वीकार कर भी तात्त्विक रूप से सबों को एक मानकर अहिंसा-धर्म को प्रतिष्ठित किया जाता है। (ख) कर्म मीमांसा–प्रश्न है जब तात्त्विक रूप से सब जीव समान हैं तो फिर उनमें विषमता क्यों है ? इस प्रश्न के उत्तर के लिए ही कर्मवाद लाया गया है। जैसा कर्म होगा वैसा फल मिलेगा । वर्तमान का निर्माण अतीत के आधार पर तथा अनागत का निर्धारण वर्तमान के आधार पर होगा । यही कार्यकारणवाद भी है। यही पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म का आधार है। अपने एवं पराये की वास्तविक प्रतीति न होना ही जैन दृष्टि से दर्शन-मोह है जिसे सांख्य-बौद्ध-अद्वैत परम्परा में अविद्या या अज्ञान कहा गया है। यद्यपि रागद्वेष ही हिंसा के प्रेरक हैं लेकिन सबका यही अज्ञान या अविद्या या दर्शन-मोह है । आत्मा जब अपने स्वरूप को समझ नहीं पाता है तो वह राग-द्वेष के कारण हिंसा करता है। (ग) चरित्र मीमांसा-चरित्र का उद्देश्य आत्मा को कर्म से मुक्त करना है। कर्म और आत्मा का सम्बन्ध अनादि है ही पर व्यक्तिगत रूप से यह सम्बन्ध सादि और सान्त सा है । आत्मा के साथ कर्म के प्रथम सम्बन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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