Book Title: Jain Darshan Chintan Anuchintan
Author(s): Ramjee Singh
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 125
________________ ११६ जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन (निर्विकार), होता है इसलिये उससे सुख प्राप्त होता है (गीता १४/६,९, १७,१८,१९) श्री अरविन्द के अनुसार आहार के प्रति अत्यधिक आसक्ति, आतुरता एवं स्वाद-लोभ ही इसको महत्त्व देता है। योगी इस आसक्ति पर विजय प्राप्त करके केवल शरीर रक्षा के लिये आहार ग्रहण करता है । इस आहार-आसक्ति पर विजय पाने के लिये उस समग्र चिरंतन चेतना के प्रति सचेतन होना होगा और फिर मनो-जगत् से आत्म या अध्यात्म-जगत् में प्रवेश करेंगे। श्री रमण महर्षि ने भी मन में सात्त्विक प्रवृत्तियां जागृत करने के लिये सात्त्विक आहार पर बल दिया है जिसके बाद ही हम आत्मज्ञान की ओर अभिमुख हो सकते हैं। २. धार्मिक आधार इसाई धर्म के संत थामस एक्वीनास के विषय में कहा जाता है कि उन्होंने दुनिया के अन्य सभी प्राणी मनुष्य के उपयोग के लिये सृजित माने हैं क्योंकि केवल मनुष्य में आत्मा है, अन्य प्राणियों में नहीं । किन्तु उनके प्रवचन १२.१० में कहा गया है “एक धर्मप्रिय व्यक्ति अपने पशुओं की चिंता रखता है।" फिर इसाइया (Book of Isaiah) स्पष्ट कहता है-"जो एक बैल की हत्या करता है मानो वह मनुष्य की ही हत्या करता है जेनेसिस (Genesis 1:29)में आकर्षक ढंग से कहा गया है "मैंने वनस्पति आदि दिये हैं और वृक्ष में फल है जो किसी प्राणी के मांस के बदले ही है।" प्रत्येक धर्मगुरुओं ने प्राण-सिद्धांत को ध्यान में रखकर प्रेम एवं करुणा की बातें कहीं हैं । आज तो अनेक मुसलमान भी हलाल की क्रूरता से व्यथित होकर उसका पालन नहीं करते । बौद्ध धर्म के अनुसार महाकरूणा के निर्माण से ही बोधिचित्त तैयार होता है जो निर्वाण या बोधिसत्त्व के लिये आवश्यक है। भगवान बुद्ध के पंचशील में अहिंसा को प्राथमिकता है ही। लंकावतार सूत्र में सुन्दर ढंग से कहा गया है कि मनुष्य या पशु सभी प्राणी एक ही परिवार के सदस्य हैं। भगवान बुद्ध ने तो यहां तक कहा कि यदि मांस खाना है तो खाओ किन्तु धर्म एवं ईश्वर को इसमें मत घसीटो। संत तिरुवल्लुवर ने तिरुकुरल के दो अध्यायों के १०-१० सूक्तियों में जीव-हिंसा एवं मांस-भक्षण का निषेध किया है। हिन्दू धर्म में वेद-उपनिषद् गीता आदि सभी जगह सात्विक जीवन एवं सात्त्विक आहार के निमित्त निरामिष-भोजन का महत्त्व बताया गया है। छान्दोग्य उपनिषद् में "आश्रद्धौ सत्त्व शुद्धिः" गीता में "सत्त्वं सुखे सजयति," (१४/९)एवं मनुस्मृति में धर्म के चारों वर्गों के धर्म में अहिंसा (१०/६३) को महत्त्व दिया ही है । जैन धर्म में तो अहिंसा की पराकाष्ठा ही है । असल में जो धर्म नैतिक मूल्यों से विलग है, वह व्यर्थ है और न्याय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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