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पहला अध्याय : जैन संघ का इतिहास
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चतुर्दश पूर्वधारी आचार्य वसु के शिष्य तिष्यगुप्त हुए। इनके अनुसार, जीव में एक भी प्रदेश कम होने पर उसे जीव नहीं कहा जा सकता । अतएव जिस प्रदेश के पूर्ण होने पर जीव कहा जाता है, उसी एक प्रदेश को जीव कहना चाहिए। राजगृह में इस निह्नव की उत्पत्ति हुई । महावीर निर्वाण के २१४ वर्ष पश्चात्, सेतव्या नगरी में अव्यक्तवादी आषाढाचार्य ने तीसरे निह्नव की स्थापना की । इस मत के अनुयायी समस्त जगत् को अव्यक्त स्वीकार करते हैं । महावीर - निर्वाण के २२० वर्ष पश्चात्, महागिरिं के प्रशिष्य और कौडिन्य के शिष्य अश्वमित्र ने मिथिला में चौथे निह्नव को प्रवर्तित किया । नरक आदि भावों को प्रत्येक क्षण में विनाशशील मानने के कारण ये लोग समुच्छेदवादी कहे जाते हैं । महावीर - निर्वाण के २२८ वर्ष पश्चात्, द्वैक्रियवादी महागिरि
प्रशिष्य और धनगुप्त के शिष्य गंगाचार्य उल्लुकातीर नगर में पांचवें निह्नव के संस्थापक माने जाते हैं । इस मत के अनुयायियों का कहना है कि जीव एक समय में शीत और उष्ण दोनों भावों का अनुभव करता है । महावीर - निर्वाण के ५४४ वर्ष पश्चात्, श्रीगुप्त के शिष्य रोहगुप्त अथवा षडुलुक ने अन्तरंजिया नगरी में त्रिराशिवाद नामक छठे निह्नव की स्थापना की । षडुलुक वैशेषिक सूत्रों के कर्ता माने गये हैं । इस मत के अनुयायी जीव, अजीव और नोजीव रूप त्रिराशि को स्वीकार करते हैं।' गोष्ठामहिल अबद्धवाद नामक सातवें निह्नव के प्रतिष्ठाता हैं । इस निह्नव की उत्पत्ति महावीर - निर्वाण के ५८४ वर्ष बाद दशपुर में हुई । इस मत में जीव को कर्मों के साथ अबद्ध स्वीकार किया गया है।
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श्वेताम्बर और दिगम्बर मतभेद
आर्य सुधर्मा के शिष्य जम्बूस्वामी अन्तिम केवली थे । उनके बाद से निर्वाण और केवलज्ञान के द्वार बन्द हो गये । महावीर के पश्चात् गौतम इन्द्रभूति, सुधर्मा और जंबूस्वामी को श्वेताम्बर और दिगम्बर
१. ये लोग गोशाल मत के अनुयायी कहे जाते हैं, समवायांगटीका २२, पृ० ३६-अ । कल्पसूत्र पृ० २२८ - के अनुसार श्रार्य महागिरि के किसी शिष्य ने इस मत की स्थापना की थी ।
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२. स्थानांग ५८७; श्रावश्यकनियुक्ति ७७६ आदि श्रावश्यकभाष्य १२५ आदि; आवश्यकचूर्णी पृ० ४१२ आदि; उत्तराध्ययन टीका ३, पृ० ६८-७५ ; औपपातिक ४१, पृ० १६७; व्याख्याप्रज्ञप्ति ६.३३; समवायांग २२ ।