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पहला अध्याय : जैन संघ का इतिहास
२३ दरवाजों पर दानशालाएँ खुलवाकर उन्होंने जैन श्रमणों को भोजनवस्त्र देने की व्यवस्था की। रथयात्रा के समय अपने सुभट आदि के साथ वह रथ के साथ-साथ चलता और रथ के समक्ष फल-फूल चढ़ाता । चैत्यगृह में स्थित भगवान महावीर की वह पूजा करता, तथा अन्य राजाओं से श्रमणों की भक्ति कराता । सुहस्ति के बाद आचार्य सुस्थित, आचार्य सुप्रतिबुद्ध और आचार्य इन्द्रदत्त जैन संघ के नेता कहलाये । इनके बाद प्रतिष्ठान के राजा सातवाहन (ईसवी सन् की प्रथम शताब्दी) के समकालीन कालकाचार्य ने संघ का अधिपतित्व किया। श्रावक-राजा माने जाने वाले सातवाहन के आग्रह पर, भाद्रपद सुदी पंचमी के दिन इन्द्रमह दिवस होने के कारण, उन्होंने भाद्रपद सुदी चतुर्थी को पयूषण पर्व मनाने की घोषणा की। ईरान के शाहों की सहायता से उज्जैनी के राजा गर्दभिल्ल को युद्ध में पराजित कर उन्होंने शकों का राज्य स्थापित किया ।२ कालकाचार्य के सुवर्णभूमि ( बर्मा ) जाने का भी उल्लेख मिलता है। ....
तत्पश्चात् , जैनधर्म के महान् प्रभावक युगप्रधान वज्रस्वामी हुए जो पदानुसारी थे और क्षीराश्रवलब्धि उन्हें प्राप्त थी। वज्रस्वामी भृगुकच्छ के राजा नहवाहण (नहपान) के समकालीन थे। वे बड़े कुरूप और कृश थे, लेकिन साथ ही महाकवि थे। उनके काव्य राजा के अन्तःपुर में गाये जाते थे। महारानी पद्मावती उनकी कविता सुनकर उनपर मोहित हो गयी, लेकिन उनके रूप को देखकर उसे वैराग्य हो आया । दश पूर्वो के वे ज्ञाता थे और दृष्टिवाद को उन्होंने अपने शिष्यों को पढ़ाया था। नवकारमंत्र का उद्धार करके उन्होंने उसे मूलसूत्र में स्थान दिया, और उज्जयिनी, बेन्यातट, मथुरा, पाटलिपुत्र, पुरिम, माहेश्वरी आदि नगरों में विहार किया । अन्त में विदिशास्थित रथावत पर्वत पर उन्होंने निर्वाण पाया। आर्यरक्षित वज्रस्वामी के प्रधान शिष्यों में से थे। वे दशपुर के निवासी थे और
१. निशीथचूर्णी १० २८६० की चूर्णी; ५.२१५३-५४ । २. वही।
३. बृहत्कल्पभाष्य पीठिका २३६ । देखिये डा० उमाकान्त शाह, सुवर्णभूमि में कालकाचार्य। ... ४. अावश्यकचूर्णी पृ० ३६०-६६; ४०४ आदि। . ..