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जैन श्रागम साहित्य में भारतीय समाज
दोनों ही सम्प्रदाय मानते हैं, इससे मालूम होता है कि इस समय तक श्वेताम्बर और दिगम्बर का भेद विद्यमान नहीं था । दिगम्बर सम्प्रदाय में विष्णु, नन्दी, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु नामके, तथा श्वेताम्बर सम्प्रदाय में प्रभव, शय्यंभव, यशोभद्र, संभूतिविजय और भद्रबाहु नाम के पांच श्रुतकेवली माने गये हैं । स्पष्ट है कि भद्रबाहु को दोनों ही सम्प्रदाय श्रुतकेवली मानते हैं, इससे पता लगता है कि इस समय तक भी जैनसंघ में श्वेताम्बर - दिगंबर भेद पैदा नहीं हुआ था। ईसवी सन् की प्रथम शताब्दी में मथुरा में पाये जाने वाले जैन शिलालेखों से भी इस कथन का समर्थन होता है । दोनों सम्प्रदायों के प्राचीन साहित्य में उपलब्ध प्राचीन परम्परागत विषय और 'गाथाओं की समानता आदि से भी यही प्रमाणित होता है कि दोनों का सामान्य स्रोत एक था। आगे चलकर ईसवी सन् की प्रथम शताब्दी के अन्तिम चरण में, विशेषतया अचेलत्व के प्रश्न को लेकर, २ दोनों में मतभेद हो गया और कालान्तर में आगमों की प्रामाणिकता के सम्बन्ध में दोनों की मान्यताएँ जुदी पड़ गयीं । 3
१. दिगम्बरीय भगवती आराधना की विजयोदया टीका ४२१, पृ. ६११-५ में अचेलत्व का समर्थन करने के लिए दशवैकालिक, आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन और बृहत्कल्प के उद्धरण दिये गये हैं !
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२. श्राचारांग सूत्र ( ६.३.१८२ ) में कहा है कि जो भिक्षु अचेल रहता हुआ सयम में स्थिर रहता है उसके मन में यह भाव नहीं पैदा होता कि उसके वस्त्र फट गये हैं, उसे दूसरे वस्त्र माँगने पड़ेंगे, उसे सुई-धागे की आवश्यकता होगी, या कपड़ों को सीना पड़ेगा। इसका मतलब यही है कि उन दिनों जिनकल्प और स्थविरकल्प दोनों प्रकार के साधु मौजूद थे । जो साधु अचेल रहना चाहते वे अचेल रहते, और जो अचेल व्रत का पालन करने में असमर्थ होते वे वस्त्र धारण करते । महावीर ने स्वयं अचेल व्रत ग्रहण किया था, जब कि पार्श्वनाथ के साधु वस्त्र धारण करते थे । इससे भी यही प्रतीत होता है कि जैन साधुत्रों में दोनों मान्यताएँ प्रचलित थीं । भद्रबाहु अचेल ती थे, तथा महागिरि और श्रार्यरक्षित ने भी जिनकल्प धारण किया था । दिगम्बर मान्यता के अनुसार जिनकल्पी और स्थविरकल्पी दोनों ही प्रकार के साधुत्रों का अचेल रहना आवश्यक है ( भावसंग्रह ११९-१३३ ) ।
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३. मेघविजयगण के युक्तिप्रबोध में दिगम्बर और श्वेताम्बरों के ८४ मतभेदों का वर्णन है । १७ वीं शताब्दी के श्वेताम्बर विद्वान् पण्डित धर्मसागर