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भावना होगी । प्रेम जैसे समर्पण चाहता है, राष्ट्र वैसे ही बलिदान चाहता है और भगवान् श्रद्धा चाहता है । नाम भिन्न-भिन्न हैं, बात एक ही है । अन्तर् का. विश्वास जागृत हो जाये तो श्रद्धा भी जगेगी, समर्पण भावना भी बढ़ेगी और बलिदान हो जाने की दृढ़ता भी आयेगी।
इसलिए मैं युवा वर्ग से कहना चाहता हूँ-आप 'श्रद्धा' नाम से घबराइए नहीं । हाँ, श्रद्धा के नाम पर अंधश्रद्धा के कुएँ में न गिर पड़ें, आँख खुली रखें, मन को जागृत रखें, बुद्धि को प्रकाशित, और फिर श्रद्धा का दीपक जलायें । श्रद्धाशीलता ही मनुष्य को कर्तव्य के प्रति उत्साहित करती है, कर्तव्य से बाँध रखती है । श्रद्धा कर्ण का वह कवच है जिसे भेदने की शक्ति न अर्जुन के बाणों में थी और न ही भीम की गदा में ।
श्रद्धा अज्ञानमूलक नहीं, ज्ञानमूलक होनी चाहिए । इसलिए पहले पढ़िये, स्वाध्याय कीजिए, ज्ञान प्राप्त कीजिए ।