Book Title: Jage Yuva Shakti Author(s): Devendramuni Publisher: Tarak Guru Jain GranthalayPage 56
________________ (५४) चिनगारियाँ उछल रही हैं, और युवाशक्ति निर्माण की जगह विध्वंस के रास्ते पर जा रही है । मैं युवकों से आग्रह करता हूँ कि वे स्वयं के व्यक्तित्व को गम्भीर बनायें, क्षुद्र विचार व छिछली प्रवृत्तियों से ऊपर उठकर यौवन को समाज व राष्ट्र का श्रृंगार बनायें । धन को नहीं, त्याग को महत्व दो आज का युवा वर्ग लालसा और आकांक्षाओं से बुरी तरह ग्रस्त हो रहा है । मैं मानता हूँ भौतिक सुखों का आकर्षण ऐसा ही विचित्र है, इस आकर्षण की डोर से बंधा मनुष्य कठपुतली की तरह नाचता रहता है । आज का मानव धन को ही ईश्वर मान बैठा है- 'सर्वे गुणाः कांचनमाश्रयन्ते' सभी 'गुण, सभी सुख धन के अधीन हैं, इस धारणा के कारण मनुष्य धन के पीछे पागल है और धन के लिए चाहे जैसा अन्याय, भ्रष्टाचार, अनीति, हिंसा, तोड़फोड़, हत्या, विश्वासघात कर सकता है । संसार में कोई पापPage Navigation
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