Book Title: Itihas Ke Aaine Me Navangi Tikakar Abhaydevsuriji Ka Gaccha
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Mission Jainatva Jagaran

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Page 8
________________ आदि इन अंगों पर सुव्यवस्थित एवं रहस्य उद्घाटन करने वाली विशद टीका का अभाव था। ऐसी परिस्थितिओं में शासनहितैकलक्षी, प्रकाण्ड विद्वान एवं शास्त्रपारगामी ऐसे एक महापुरुष ने शासनदेवी की विनंति स्वीकार करके विकट परिस्थितिओं में भी उत्सूत्र प्ररुपणा से बचने हेतु पूर्ण सावधानी पूर्वक उपलब्ध प्राचीन टीकाओं के त्रुटित अंशों के आधार पर स्थानाङ्गादि नौ अंगों पर सुगम एवं विशद टीकाओं की रचना करके जिनशासन की विच्छिन्न होती आगमों की अर्थ परंपरा को चिरस्थायी बनाने का महत्तम एवं अनुपम कार्य किया। उन महापुरुष का नाम था आचार्य अभयदेवसूरिजी, जो जिनशासन में नवाङ्गीटीकाकार' के नाम से प्रसिद्ध हुए। जिस प्रकार देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ने आगम लेखन करवाकर सूत्रों को चिरस्थायी बनाने का अद्वितीय कार्य किया था, उसी तरह नव अङ्गों की नष्ट होती अर्थ परंपरा को चिरस्थायी बनाकर जिनशासन की अनुपम सेवा का कार्य नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी ने किया था। ऐसे महापुरुषों से संबंध रखती हर वस्तु, धन्यता का अनुभव करती है। पू. आनन्दघनजी महाराज ने भी 15वें भगवान की स्तवना में कहा है “धन्य ते नगरी, धन्य वेला घड़ी, मात-पिता कुल वंश, जिनेश्वर...।' अतः नवाङ्गीटीकाकार जैसे महान ज्योतिर्धर जिस गच्छ या परंपरा में हुए थे, वह गच्छ भी गौरवान्वित बन जाता है, यह स्वाभाविक है। परंतु इतिहास का विशेष ज्ञान न होने के कारण ‘अभयदेवसूरिजी किस गच्छ के थे' ? इसका कई लोगों को पता नहीं था। ऐसी परिस्थिति में प्राचीनकाल में एक बात का भारपूर्वक *1. विविधार्थरत्नसारस्य देवताधिष्ठितस्य विद्याक्रियाबलवताऽपि पूर्वपुरुषेण कुतोऽपि कारणाद् अनुन्मुद्रितस्य स्थानाङ्गस्य उन्मुद्रणमिवानुयोगः प्रारभ्यते। (स्थानाङ्ग टीका के प्रारंभ में) * सत्सम्प्रदायहीनत्वात सदहस्य वियोगतः। सर्वस्वपरशास्त्राणामदृष्टेरस्मृतेश्च मे।।1।। वाचनानामनेकत्वात्, पुस्तकानामशुद्धितः। सूत्राणामतिगाम्भीर्यान्मतभेदाश्च कुत्रचित्।।2।। झूणानि सम्भवन्तीह, केवलं सुविवेकिभिः। सिद्धान्तानुगतो योऽर्थः, सोऽस्माद् ग्राह्यो न चेतरः।।3।। (स्थानाङ्ग वृत्ति प्रशस्ति) इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /008

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