Book Title: Indological Studies
Author(s): H C Bhayani
Publisher: Parshva Prakashan

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Page 289
________________ The Apabhramsa Passages of Abhinavagupta 279 इस सुण्अ विमलमेणं निअ अप्पाणं समत्थवत्थमअम् । जो जोअय सो परभैरइ बोव्व परणिव्वई लहइ ।। (32) इय सुणि अ विमलमेणं निअ.अप्पाणं समत्थ-वत्थुम । जो जोअह सो पर भइरवो व्व पर-णिवुई लहइ ॥ [इति श्रुत्वा विमलमेनं निजात्मानं समस्त-वस्तुमयं । यः पश्यति स पर-भैरवः इव परनिर्वृतिं लभते ॥ ] जं अनु अन्धि विसेसं घेतूण जडन्ति मन्तमुच्चरइ । इच्छासत्तिप्पाणो तं तं मन्तो करेइ फुडम् ॥ (15.1) जं अणुसंधि-विसेसं घेत्तूण झडत्ति मंतमुच्चरइ । इच्छा-सत्ति-प्पाणो तं तं मंतो करेइ फुडं ॥ [ यमनुसंधि-विशेषं गृहीत्वा झटिति मन्त्रमुच्चरति । इच्छा-शक्ति-प्राण : तं तं मन्त्रो करोति स्फुटम् ॥] IV परम्म सिवतम्म अत्तणप्पडिसच्छन्दमान । परमत्थं जो आविसत्ताऽसदिक्खइ पराक्ख इवं पिसिस्सगणं ।। (16.1) परम-सिवतम-अत्तण-पडि सच्छंद-भान-परमस्थं । जो आवेसंतो से दिक्खइ परोक्खे स्वं पि सिस्स-गणं ॥ [परम-शिवतमं आत्म-पतितं स्वच्छन्द-भान-परमार्थम् यः आवेशयन स दीक्षयति परोक्षरूपमपि शिष्यगणम् ] जिस्स दढपसिद्धिघडिए ववहारे सोइ असिम णीसंको। तह होहि जहुत्तिण पसिद्धिरूढिए परमसिवो ।। (21.1) जह दढ-पसिद्धि-घडिए ववहारे लोउ अस्थि णीसंको। .. तह होइ जणुत्तिण-प्पसिद्धि-रूढिए परम-सिवो ॥ [यथा दृढ-प्रसिद्धि-घटिते व्यवहारे लोकः अस्ति निःशङ्कः । तथा भवति जनोत्तीर्ण-प्रसिद्धि-रूढया परम-शिवः ॥]

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