Book Title: Indological Studies
Author(s): H C Bhayani
Publisher: Parshva Prakashan

Previous | Next

Page 293
________________ The Apabhramsa Passages of Abhinavagupta 283 XVIII जह उल्लसह जह विणिरुज्जइ पवनसत्ति तह एहु महेसरु । सिठिपलअं इसइ ज णिमज्जइ सो अत्ता |उ चित्तहसाअरु ॥ (6.2) जह उल्लसइ जह(?) वि णिरुज्झइ. पवण-सत्ति तह एहु महेसरु । सिहि पलअ दंसइ अ णिमज्जह सो अत्ताणउ चित्तह साअरु ॥ [यथा उल्लसति यथापि निरुध्यते पवन-शक्तिः तथा एषः महेश्वरः । सृष्टि-प्रलयान् दर्शयति च निमज्जयति । स आत्मा चित्रस्य सागरः ।।] XIX एहु सरीरु सअलु अह भवसरु इच्छामित्तणजेण विचित्ति उ । सोश्चिअ सोक्खदेयि परमेसरु इअजानन्त उरूढिपवित्ति उ ॥ (19.1) एहु सरीरु सअलु अह भवसरु(!) इच्छा-मित्तिण जेण वि चिंतिउ । सो च्चिअ सोक्खु देइ परभेसरू इअ जोणंतउ रूढि-पवित्तिठ ।। [एतद् शरीरम् सकलम् अथ भव-सरः(१) इच्छोमात्रेण येन अपि चिन्तितम् । स एव सौख्यम् ददाति परमेश्वरः इति जानन् रूढि-पवित्रितः ॥] xx पसवअणुहं जोत्तमसासणुल इविणुपणुपरमेसपसाइण । पत्थइ सद्गरू बोहपसाहणु सो दिक्खइ लिङ्गोद्धारिण ॥ (17.1) पसव-जणहं(?) जो उत्तम-सासणु लइविणु पुणु परमेस-पसाइण । पत्थइ सग्गुरु-बोह-पसाहणु सो दिक्खइ लिंगोद्धरिणिण(?) ॥ [पशु-जनानाम् (?) यः उत्तम-शासनम् प्राप्य पुनः परमेश-प्रसादेन । प्रार्थयते सदगुरु-बोध-प्रसाधनं स दीक्ष्यते लिङ्गोद्धरणेण (?) ।।] XXI सअल प्रआस रूउ संवेअण फन्दतरङ्ग कलण तहु पाणुर । पाणब्भन्तरम्मि परिणिहउ सअलउ कलिपसरू परिआणुः ।। (6.1) सअल-प्रआस-रूअ संवेअण फंदतरंग-कलण तहु पाणु । पाणभंतरम्मि परिणिहिउ सअलउ काल-पसरु परिआणु ।। [सकल-प्रकाश-रूपा संवेदना स्पंद-तरङ्ग-कलना तस्याः प्राणः । प्राणाभ्यन्तरे परिनिष्ठितः सकलः काल-प्रसरः परिजानीहि ॥]

Loading...

Page Navigation
1 ... 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376