Book Title: Indological Studies
Author(s): H C Bhayani
Publisher: Parshva Prakashan
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The Apabhramsa Passages of Abhinavagupta
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XVIII जह उल्लसह जह विणिरुज्जइ पवनसत्ति तह एहु महेसरु । सिठिपलअं इसइ ज णिमज्जइ सो अत्ता |उ चित्तहसाअरु ॥ (6.2) जह उल्लसइ जह(?) वि णिरुज्झइ. पवण-सत्ति तह एहु महेसरु । सिहि पलअ दंसइ अ णिमज्जह सो अत्ताणउ चित्तह साअरु ॥ [यथा उल्लसति यथापि निरुध्यते पवन-शक्तिः तथा एषः महेश्वरः । सृष्टि-प्रलयान् दर्शयति च निमज्जयति । स आत्मा चित्रस्य सागरः ।।]
XIX एहु सरीरु सअलु अह भवसरु इच्छामित्तणजेण विचित्ति उ । सोश्चिअ सोक्खदेयि परमेसरु इअजानन्त उरूढिपवित्ति उ ॥ (19.1) एहु सरीरु सअलु अह भवसरु(!) इच्छा-मित्तिण जेण वि चिंतिउ । सो च्चिअ सोक्खु देइ परभेसरू इअ जोणंतउ रूढि-पवित्तिठ ।। [एतद् शरीरम् सकलम् अथ भव-सरः(१) इच्छोमात्रेण येन अपि चिन्तितम् । स एव सौख्यम् ददाति परमेश्वरः इति जानन् रूढि-पवित्रितः ॥]
xx पसवअणुहं जोत्तमसासणुल इविणुपणुपरमेसपसाइण । पत्थइ सद्गरू बोहपसाहणु सो दिक्खइ लिङ्गोद्धारिण ॥ (17.1) पसव-जणहं(?) जो उत्तम-सासणु लइविणु पुणु परमेस-पसाइण । पत्थइ सग्गुरु-बोह-पसाहणु सो दिक्खइ लिंगोद्धरिणिण(?) ॥ [पशु-जनानाम् (?) यः उत्तम-शासनम् प्राप्य पुनः परमेश-प्रसादेन । प्रार्थयते सदगुरु-बोध-प्रसाधनं स दीक्ष्यते लिङ्गोद्धरणेण (?) ।।]
XXI
सअल प्रआस रूउ संवेअण फन्दतरङ्ग कलण तहु पाणुर । पाणब्भन्तरम्मि परिणिहउ सअलउ कलिपसरू परिआणुः ।। (6.1) सअल-प्रआस-रूअ संवेअण फंदतरंग-कलण तहु पाणु । पाणभंतरम्मि परिणिहिउ सअलउ काल-पसरु परिआणु ।। [सकल-प्रकाश-रूपा संवेदना स्पंद-तरङ्ग-कलना तस्याः प्राणः । प्राणाभ्यन्तरे परिनिष्ठितः सकलः काल-प्रसरः परिजानीहि ॥]
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