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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
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अलंकारोका प्रयोग भी नैसर्गिक ढंगसे ही हमा है। भाव और कला दोनों ही पक्षोमें सौन्दर्य है और मर्यादा भी।
एक स्थानपर कविने चिन्ता प्रकट की है कि न जाने कब इस मनकी दुविधा जायेगी, और यह अपने निरंजनके स्मरणमे लो लगायेगा। न जाने कब हमारे नेत्र-चातक आत्मारूपी घनसे टपकनेवाली अमृत-बूंदोंका स्वाद लेंगे तथा न जाने कब, हम तनकी ममता त्याग कर, आत्माका शुभ ध्यान लगायेंगे,
"दुविधा कब जैहै या मन की। कब जिननाथ निरंजन सुमिरौं, तजि सेवा जन जन की। कब रुचि सौं पी रग चातक, बूंद अखय पद धन की। कब शुभध्यान भरौं समता गहि, करूं न ममता तन की ॥
दुविधा कब जैहै या मन की ॥"' सन्त कवियोंकी भांति बनारसीदासने कहा कि यह जीव मूर्ख है, क्योंकि यह उस ईश्वरको संसारमें ढूंढता फिरता है, जो उसके घटमें ही विराजमान है । उसका यह ढूंढ़ना कस्तूरी मृगके भ्रमणको भांति ही व्यर्थ है,
"ज्यौं मृगनामि सुवास सों, ढूंढ़त बन दोरै।
त्यों तुझमें तेरा धनी, तू खोजत भोरै ।। करता भरता भोगता, घट सो घट माहीं ।
ज्ञान बिना सद्गुरु बिना, तू समुझत नाहीं ॥" बनारसीदास ईश्वरको देवोंका देव मानते है। उसके चरणोंका स्पर्श करनेमात्रसे ही मोक्ष प्राप्त हो जाता है । अठारह दोषोंसे रहित उस प्रभुकी सेवा करना परम कर्तव्य है,
"जगत में सो देवन को देव । जासु चरन परसैं इन्द्रादिक होय मुकति स्वयमेव ॥जगत०॥ नहिं तनरोग न श्रम नहिं चिंता, दोष अठारह मेव ।
मिटे सहज जाके ता प्रभु की, करति 'बनारसि' सेव ॥जगत०॥" शारदा देवीकी स्तुतिमें भाव-विभोरता है, तो अनुप्रासोंकी छटा भी। उसमें संगीत-सा आनन्द सन्निहित है, . "अतीता अजीता सदा निर्विकारा। विष वाटिका खंडिनी खंग धारा ।। पुरापाप विक्षेप कर्तृकृपाणी । नमो देवि वागेश्वरी जैन वानी ॥ १. अध्यात्मपद पंक्ति, पद्य १३, बनारसी विलास, जयपुर, पृ० २३१-२३२ । २. वही, पद्य १५, पृ० २३२ ।