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हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि
हैं, "तुम सम दीनबन्धु न दीन कोउ मो सम सुनहु नृपति रघुराई।" कही लिखा है, “दीनबन्धु दूसरो कहँ पात्रो", " और कही उन्हे "बिनु कारन पर उपगारी, अति को करुना निधान, दोन हितकारी" रामके अतिरिक्त अन्य कोई उपलब्ध नहीं हुआ । सूरदासके विनयके पदोंमे दीनता बिखरी पडी है। उन्होने भी 13 लिखा है,
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"अब धौं कहौ, कौन दर जाऊं ?
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तुम जगपाल, चतुर चिंतामनि, दीनबंधु सुनि नाउं ॥
जैन कवियों के भाव भी इनसे मिलते-जुलते है । कवि द्यानतरायने अपने मनको दीनदयालु भगवान् जिनेन्द्रका भजन करनेके लिए निरन्तर प्रेरित किया है । भूधरदासको भो भगवान्के दीनदयालु रूप मे परम विश्वास है। उन्होने संसारी दशासे दुःखित होकर दीनदयालु भगवान्को पुकारा है,
" हो जगत गुरु एक, सुनियो अरज हमारी । तुम हो दीनदयालु, मैं दुखिया संसारी ॥
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दीनता के साथ ही भक्त ने अपने दोषोंका भी खुलकर उल्लेख किया है । उसे भगवान् की उदारतामे पूर्ण विश्वास है । भगवान् दयालु है, वह अपने भक्तको, होते हुए भी भवसमुद्रसे पार लगा देता है । तुलसाने 'विनयपत्रिका मे लिखा है,
" माधव मी समान जग नाहीं ।
सब बिधिहीन, मलीन, दीन अति, लीन विषय कोउ नाहीं ॥
तुम सम हेतु-रहित कृपालु भारत-हित ईस न त्यागी । मैं दुख- सोक - विकल, कृपालु केहि कारन दया न लागी ॥ जैन कवि भगवतीदास 'भैया' ने 'चेतन' के दोषो को प्रकट करते हुए, उसे भगवान्का भजन करने की बात कही है। उन्हें विश्वास है कि भगवान्की कृपासे दोष पलायन कर जायेंगे,
पहला पद्य, पृ० ५२२ ।
६. विनयपत्रिका, पूर्वार्द्ध, १४४वाँ पद, पृ० २१३ ।
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१. विनयपत्रिका, उत्तरार्ध, २४२वॉ पद, पृ० ४७५ ।
२. २३२वॉ पद, पृ० ४५५ ।
३. वही, १६६वाँ पद, पृ० ३२१ ॥
४. सूरसागर, प्रथम स्कन्ध, १६५वाँ पद, पृ० ५४ |
५. भूधरदास, जिनस्तुति, ज्ञानपीठ पूजाञ्जलि, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, छठा खण्ड,