Book Title: Hindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Author(s): Premsagar Jain, Kaka Kalelkar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 513
________________ तुलनात्मक विवेचन अनन्य भक्ति तो वह ही है, जब भक्तको अपने आराध्य के सिवा अन्य किसी ओर देखनेका एक क्षण भी न मिले। किसी अन्यदेवको बुरा कहनेसे इतना तो प्रकट ही है कि ध्यान उघर गया । अनन्य भक्तिमे तो मनको आलम्बनपर केन्द्रित करने का भाव है । तुलसीने प्रतिज्ञा की कि-कान रामके अतिरिक्त और किसीकी कथा नहीं सुनेंगे, रसना और किसीके गीत नहीं गायेगी, नेत्र और किसीको नहीं देखेंगे तथा सिर किसी अन्यके समक्ष नही झुकेगा ।' कवि द्यानतरायका कथन है कि-चरन वे ही है, जो जिन भवन पहुँचते हैं, जिह्वा वह ही है, जो जिन नाम गाती है । आँख वह ही है, जो जिनराजको देखती है और श्रवण वे ही है, जो जिन वचन सुनते है । कहने का तात्पर्य है कि ये कवि जब युगसे ऊपर उठ गये हैं, तो उन्हें अपने देवके अतिरिक्त अन्यके अस्तित्वका भी आभास नहीं हुआ । उनकी सात्त्विकताका यह पृष्ठ ही वास्तविक है । ४८७ दीनता और स्वदोषों का उल्लेख भक्ति आलम्बनके महत्व और अपने दैन्यका अनुभव परम आवश्यक अंग है । आराध्य की महत्ता के अनुभवके साथ ही अपनी दीनताका आभास हुए बिना नहीं रहता । किन्तु भक्तकी दीनता किसी चाटुकारी भावसे संचालित नही होती, क्योकि उसमे आराध्यमय हो जानेकी आकांक्षाके अतिरिक्त अन्य कोई इच्छा अवशिष्ट नही रह जाती है । अतः दरबारी कवियोंकी दोनता और भक्त कवियोंकी दीनता अन्तर है । तुलसीकी दीनता जगप्रसिद्ध है। कही तो उन्होंने लिखा १. जानकी - जीवन को बलि जैहौं ! चित है, रामसीय - पद परिहरि अब न कहूँ चलि जैहीं ॥ aft औरि कथा नहि सुनिहों, रसना और न हौ । रोकिहीँ नैन बिलोकत औरहि सोस ईस ही नही || विनयपत्रिका, पूर्वार्ध, १०४वाँ पद, पृ०१६६ । २. रे जिय! जनम लाहो लेह || चरन ते जिन भवन पहुँचें, दान दें कर जेह । उर सोई जामै दया है, अरु रुधिर को गेह । जीभ सो जिन नाम गावै साँच सो करें नेह । आँख ते जिनराज देखें, और आँखें खेह | न ते जिन बचन सुनि, शुभ तप तपै सो देह | रे जिय० ॥ द्यानतपदसंग्रह, कलकत्ता, हवा पद, पृ० ४ ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531