Book Title: Hindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Author(s): Premsagar Jain, Kaka Kalelkar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 517
________________ तुलनात्मक विवेचन "मेरी बेर कहा ढील करी जी! सूली सों सिंहासन कीनो, सेठ सुदर्शन विपति हरी जी ॥ सीता सती अगिनि मैं पैठी, पावक नीर करी सगरी जी। वारिषेण पै खड़ग चलायो, फूल माल कीनी सुथरी जी ॥ धन्या वापी परथो निकाल्यो, ता घर रिद्ध अनेक भरी जी । सिरीपाल सागर तैं तारथो, राज भोग के मुकत बरी जी ॥ सांप हुयो फूलन की माला, सोमा पर तुम दया धरी जी। द्यानत मैं कछु जांचत नाही, कर वैराग्य दशा हमरी जी ॥" भगवान्के समक्ष धड़क खुल जानेका अर्थ यह नहीं है कि उनसे जो चाहे सो कह दिया जाये । वहाँ भी शालीनताका ध्यान तो रखना ही पड़ेगा। कही-कहीं सूरदासको फटकार शालीन मनको रुचती नही । एक स्थानपर उन्होंने लिखा है, "पतित पावन हरि, बिरद तुम्हारो कौनैं नाम धरयो। हौं तो दीन, दुखित, अति दुरबल, द्वारे स्टत परयौ ॥" इसके समक्ष यानतरायका एक उपालम्भ देखिए। उसमे गरिमा तो है, किन्तु मर्यादाका उल्लंघन नहीं। उनका यह पद उपालम्भ साहित्यका एक अनूठा रत्न है । भक्तने कहा, "तुम प्रभु कहियत दीन दयाल । आपन जाय मुकत मैं बैठे, हम जु रुलत, जग जाल ॥ तुमरो नाम जपें हम नीके, मन बच तीनौं काल । तुम तो हमको कछू देत नहिं, हमरो कौन हवाल ॥" नाम-जप सभी भक्त कवियोंने भगवान् के नाम-जपको महिमा स्वीकार की है। तुलसीने लिखा है कि भगवान्का नाम-जप इहलौकिक विभूति तो देता ही है, पारलौकि शाश्वत सुख भी प्रदान करता है, १.द्यानतपदसंग्रह, कलकत्ता, १७वाँ पद, पृ० ७-८ । २. सूरसागर, प्रथम स्कन्ध, १३३वाँ पद, पृ० ४४ । ३. यानतपदसंग्रह, ६याँ पद, पृ० २८ ।

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