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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य कर मरमी-भक्तको धारण करते थे। वेश-भूषा दोनो ही है और मेरी दृष्टिमे उन्होंने दोनों को ही खिलाफ़त को । एक यनी ज्ञानसागर हुए है, जिनकी टोकासे यह स्पष्ट है कि वे जैन साधुके वेशमे ही रहते थे।
उत्तरमध्यकालमे आनन्दघन, घनानन्द और आनन्द नामके कई कवि हुए हैं। उनमे-से सुजानवाले घनानन्द और जैन आनन्दघनको आचार्य क्षिनिमोहन सेनने 'जैन मर्मी आनन्दधन' वाले लेखमे एक ही प्रमाणित किया है। शायद आचार्यजीका यह अनुमान शिवसिंह सेंगरके 'सरोज' मे घनानन्दके लिए निर्धारित सं. १७१५ पर आधारित है, जो अब गलत प्रमाणित हो चुका है। आचार्य पं. विश्वनाथप्रसाद मिश्रने उनका समय अठारहवी शताब्दीका अन्तिम पाद अनेक प्रमाणोसे सिद्ध किया है । यद्यपि दोनोके विचारोंमे कहो-कही बहुत साम्य है, किन्तु फिर भी घनानन्दने 'सजान' को कभी नही छोडा. जब कि आनन्दघनने इस शब्द तकका प्रयोग शायद ही कही किया हो। एक तीसरे आनन्दघन नन्दगांवके थे, जिनका साक्षात्कार श्री चैतन्यदेवजीसे हुआ था । अतः उनका समय सोलहवीं शताब्दीका उत्तरार्द्ध ठहरता है, और वे उपर्युक्त दोनोंसे पृथक् थे। एक चौथे आनन्द और हुए है, जिन्होने काम-विज्ञानपर 'कोक मंजरो'का निर्माण किया था। बहुत दिनो तक इनको और घनानन्दको एक ही माना जाता रहा, किन्तु अब उनका पृथक्त्व स्पष्ट हो गया है । आनन्दघनकी रचनाएँ ___ इनकी दो रचनाएं हैं, एक तो 'चौबीसी' और दूसरी 'आनन्दघन बहत्तरी 'चौबीसी' गुजरातीमे है और 'बहत्तरी' हिन्दीमें। चौबीसीमे चौबीस स्तोत्र हैं, जो चौबीस तीर्थंकरोंकी स्तुतिमें रचे गये थे। इसके रचना-कालपर विचार करते हुए पण्डित विश्वनाथप्रसाद मिश्रने 'अध्यात्मवादी आनन्दघन अने श्री यशोविजय' नामके लेखका आधार लेकर लिखा है कि "उनकी चौबीसीकी कई पंक्तियां सर्वश्री समयसुन्दर । सं० १६७२ । जिराजमूरि । सं० १६७८ । सकलचन्द्र । सं० १६४० और प्रीति विमल । सं० १६७१। के जिन स्तवनादि ग्रन्थोमे आये चरणोंसे मिलती
१. 'आजकल' जून सन् १९४८ ई० में पं० विश्वनाथप्रसाद मिश्रका लेख, आनन्दघन
का निधन संवत्, पृ० १२, और घनानन्द कवित्त, प्रस्तावना, पृ० १८१ २. का० ना० प्र० पत्रिका, वर्ष ५३, अंक १ में पं० विश्वनाथप्रसाद मिश्रका लेख.
नन्दगाँवके श्रानन्दधन, पृष्ठ ४६ । ३. डॉक्टर ग्रियर्सनका दि मॉडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑव हिन्दुस्तान, पृष्ठ ६२,
संख्या ३४७।