Book Title: Hindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Author(s): Premsagar Jain, Kaka Kalelkar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 492
________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि भण्डार उपलब्ध हो सकते हैं। दादूका कथन है कि सतगुरुके मिलनेसे साहबका दोदार तो सहजमें ही मिल सकता है।" जैन साहित्यमे गुरु-भक्तिके अनेकानेक सरस उदाहरण उपलब्ध होते है । सत्तरहवीं शताब्दीके महाकवि समयसुन्दर गुरु राजसिंहसूरिकी भक्तिमें भावविभोर होते हुए कह उठे, "मेरा आजका दिन धन्य है । हे गुरु ! तेरे मुखको देखते ही जैसे मेरी तो समूची पुण्यदशा ही प्रकट हो गयी है। हे श्री जिनसिंहसूरि ! मेरे हृदयमे सदैव तू ही रहता है और स्वप्न में भी तुझे छोड़कर अन्य दिखाई नहीं देता। मेरे लिए तो तुम ऐसे ही हो जैसे कुमुदिनीके लिए चन्द्र, जिसको दूर होते हुए भी कुमुदिनी समीप ही समझती है। तुम्हारे दर्शनोंसे आनन्द उत्पन्न होता है, और मेरे नेत्र प्रेमसे भर जाते है । जीव तो सभीको प्यारा होता है, किन्तु मुझे तुम उससे भी अधिक प्रिय हो।" श्री कुशललाभने आचार्य पूज्यबाहणकी भक्ति में जिस सरसताका परिचय दिया है वह कम ही स्थानोंपर मिलती है । आषाढ़के आते हो चौमासेका प्रारम्भ हुआ और पूज्यबाहण त्रम्बावतीमें पधारे। उस समयका भक्तिसे भरा एक चित्र देखिए, "आषाढ़के आते ही दामिनी झबूके लेने लगी, कोमल कामिनियां अपने प्रीयडाकी बाट जोहने लगी, चातक मधुर ध्वनिमे 'पीउ पीउ' का उच्चारण करने लगा और सरोवर बरसातके विपुल जलसे भर गये। इस अवसरपर महान् श्री पूज्यबाहणजी श्रावकोंको सुख देने के लिए त्रम्बावतीमे आये । वे दीक्षारमणीके साथ रमण करते है और उनमें हर किसीका मन बंधकर रह जाता है। उनके प्रवचनमें कुछ ऐसा आकर्षण है कि उसे सुनकर वृक्ष भी झूम उठे हैं, कामिनी कोकिल गुरुके ही गीत गाने लगी है, गगन गूंज उठा है, १. सदगुरु मिले तो पाइये भक्ति मुक्ति भंडार।। दादू सहजै देखिए साहिब का दीदार ॥ दादू गुरुदेव को अंग, त्रिलोकीनारायण दीक्षित, सन्तदर्शन, कानपुर, पृ० २२, पादटिप्पण ३ । २. आज कु धन दिन मेरउ। पुन्य दशा प्रगटो अब मेरी, पेखतु गुरु मुख तेरउ ॥ श्री जिनसिंह सूरि तुहि मेरे जोउ मे, सुपनइ भई नहींय अनेरो। कुमुदिनो चन्द जिसउ तुम लोनउ, दूर तुही तुम्ह नेरउ ॥ तुम्हारइ दरसण, आणंद उपजती, नयनको प्रेम नवेरउ । 'समय सुन्दर' कहइ सब कुंबलभ, जीउ तुं तिनथइ अधिकेरउ ॥ समयसुन्दर, जिनसिंह सरिगीतम् , ७वॉ पद्य, ऐतिहासिक जैनकाव्य संग्रह, अगरचन्द नाहटा सम्पादित, कलकत्ता, पृ० १२६ ।

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