Book Title: Hindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Author(s): Premsagar Jain, Kaka Kalelkar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 501
________________ तुलनात्मक विवेचन ४७५ लिखा है, "अन्तःको निर्मल बनानेसे लक्ष्य मिलता है, बाह्य आडम्बरोसे नहीं। शिव-शिवका उच्चारण करनेसे क्या होता है, यदि काम, क्रोध और छलको नहीं जीता। जटाओके बढ़ानेसे क्या होता है, यदि पाखण्ड न छोड़ा। सिर मुंडानेसे क्या होता है, यदि मन न मुंडा। इसी प्रकार घर-बारके छोड़नेसे क्या होता है, यदि वैराग्यकी वास्तविकताको नही समझा।". भगवतीदास 'भैया'ने भी अपने अनेक पदोमे इस सिर मुंडानेकी निन्दा की है। उन्होने एक स्थानपर लिखा है, "निर्मल आत्मामे शुद्ध श्रद्धानके बिना केवल मूंड मुंडानेसे कुछ नहीं होता। उससे सिद्धि नहीं हो सकती।" उन्होंने यह भी कहा कि यदि सिद्धिके लिए मूंड़ मुंडाना ही पर्याप्त है, तो भेड़ोंको तो सबसे पहले तिर जाना चाहिए, क्योंकि उनका सारा शरीर प्रतिवर्ष मुंडा जाता है। भेड़का दृष्टान्त कबीरदासने भी दिया है। उनका कथन है, “यदि मूड़े मुंडानेसे सिद्धि हो जाती, तो भेड़ तो कभीकी मुक्त हो गयी होती, किन्तु उसे मोक्ष नहीं मिला इसे सभी जानते है ।" कबीरका विचार है कि केशोंने क्या बिगाड़ा है, जो उसे सौ-सौ बार मूड़ा जाता है। मनको क्यों नहीं मूड़ते, जिसमें विषय-विकार भरा हुआ है । दादूका भी कथन है कि मनको ही मूड़ना चाहिए, सिरको नहीं, काम-क्रोधको समाप्त करना चाहिए, केशोंको नहीं काटना चाहिए। १. उदयराज जती, गुणवावनी, पहला पध, जैन गुर्जर कविओ, तीजो भाग, पृ० ६७५-७६ । २. नाम मात्र जैनी पै न सरधान शुद्ध कहूं, मुंड के मुंडाये कहा सिद्धि भई बावरे । भगवतोदास 'भैया', ब्रह्मविलासे, बम्बई, फुटकर विषय, वॉ पद्य, पृ० २७४ । ३. शुद्धि तें मीन पिये पय बालक, रासभ अंग विभूति लगाये। राम कहे शुक, ध्यान गहे बक भेड़ तिरै पुनि मून्ड मुड़ाये ॥ वही, शत अष्टोत्तरी, ११वॉ पद्य, पृष्ठ १०। ४. मूंड़ मुंडाय जो सिधि होई, स्वर्ग हो भेड़ न पहुंती कोई ॥ कबीर ग्रन्थावली, चतुर्थ संस्करण, काशी, १३२वॉ पद, पृष्ठ १३० । ५. केसी कहा बिगाड़िया, जे मूंडे सौ बार । मन कौं काहे न मुंडिए, जामैं विषय विकार ॥ वही, मेष को अंग, १२वी साखी, पृष्ठ ४६ । ६. दादू, 'मन को अंग', ११वी साखी, सन्त सुधासार, पृष्ठ ४७४ ।

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