Book Title: Hindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Author(s): Premsagar Jain, Kaka Kalelkar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 499
________________ तुलनात्मक विवेचन "तुम कारन संयम तप किरिया, कहो कहां लों कोजे । तुम दर्शन बिनु सब या झंठी, अन्तर चित्त न मीजे ॥ चेतन अब मोहि दर्शन दीजे ॥" कवि भूधरदासने अन्तरकी उज्ज्वलताको प्रमुख माना है। यदि 'अन्तः' विषय कषायरूपी कीचड़से लिप्त है, तो तीर्थादिक कोई लाभ नहीं दे सकते । बाह्य वेषकी सफलता पवित्र हृदयपर निर्भर है। यदि मन कामादिक वासनाओंसे मलिन है, तो अधिकसे अधिक भजन करनेपर भी लक्ष्य प्राप्त न होगा। कवि द्यानतरायने भी अन्तःको शुद्धिके बिना प्रत्येक मासमें किये जानेवाले उपवास और कायाको सुखानेवाले तपको व्यर्थ माना है। ___ यहाँ कबीरदास आदि सन्त भी एकमत है। सन्त रज्जबदासने लिखा है कि यदि हृदय शुद्ध नहीं है, तो भगवान्का पूजा-पाठ भी व्यर्थ है । सन्त सुन्दरदासने 'ज्ञानझूलनाष्टक' मे हृदयको पवित्रताके बिना योग, याग, त्याग, वैराग्य, नाम, ध्यान और ज्ञान आदिको निःसार कहा है। कबीरदासका अभिमत है कि बिसवे अपने मनको भगवान्मे रंग लिया है, वह ही सच्चा योगी है, कपड़ा रंगवानेसे कोई लाभ नहीं। मनकी शुद्धिके बिना वह कान फड़वाकर और जटा-दाढ़ी बढ़ा१. कवि यशोविजयजी, 'चेतन अब मोहि दर्शन दीजे', अध्यात्मपदावली पू०, २२४, पं० राजकुमार सम्पादित, भारतीय शानपीठ, काशी।। २. जप तप तीरथ जज्ञ व्रतादिक, आगम अर्थ उचरना रे । विषय कषाय कीच नहिं धोयो, यों ही पचि पचि मरना रे॥ अन्तर उज्ज्वल करना रे भाई॥ कामादिक मल सौं मन मैला, भजन किये क्या तिरना रे? भूधर नील वसन पर कैसे, केसर रंग उछरना रे ? ____अन्तर उज्ज्वल करना रे भाई॥ भूधरविलासे, कलकत्ता, ३१वॉ पद, पृ० १७ । ३. मास मास उपवास किये तैं, काया बहुत सुखाई। . क्रोध मान छल लोभ न जोत्या, कारज कौन सराई ? तू तो समझ समझ रे भाई ॥ धानतविलास, कलकत्ता, ३२वाँ पद, पृ० १४ । ४. संतो ऐसा यहु आचार पाप अनेक करैं पूजा मे, हिरदै नहीं विचार ॥ सन्तसुधासार, सेन्त रज्जबजी, ४था पद, पृष्ठ ५१४ । ५. सेन्तसुधासार, सुन्दरदास, झूलनाष्टक, दूसरा पद्य, पृष्ठ ५६६ ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531