Book Title: Hindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Author(s): Premsagar Jain, Kaka Kalelkar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 491
________________ तुलनात्मक विवेचन ર सुख- राज करने में समर्थ हो सकोगे । सन्त पलटू साहबने भी गुरुके परोपकारी स्वभावको समझकर ही यह कहा है कि भवसागर से तरनेके लिए गुरुरूपी जहाज ही सर्वोत्तम उपाय है। कबीरदासने कहा कि जिसने गुरुरूपी जहाजको छोडकर अन्य किसी बेड़ेसे इस भव-समुद्रको पार करनेका प्रयास किया, वह सदैव असफल रहा, और यह निश्चित है कि उसका बेड़ा किसी-न-किसी औघट घाटपर अवश्य डूबेगा 3 ४६५ गुरुने केवल ज्ञान ही नहीं, अपितु भक्ति भी दी है, अर्थात् गुरुको कृपासे ही शिष्य भगवान्को भक्तिमे प्रवृत्त हो सकता है । पाण्डे हेमराजने गुरुके इस भक्तिप्रदाता गुणपर विश्वास करके ही उनसे भरपूर भक्तिकी याचना की है। उन्होने गुरुका वर्णन करनेमे अपनी असमर्थता दिखाते हुए कहा, "मै गुरुका भेद कहाँतक कहूँ । मुझमे बुद्धि थोड़ी है और उनमें गुण बहुत अधिक है। हेमराजकी तो इतनी ही प्रार्थना है कि इस सेवकके हृदयको भक्ति से भर दो ।" कबीरदासने तो स्पष्ट ही गुरुको भक्तिका देनेवाला माना है। उन्होंने कहा, "ज्ञान भगति गुरु दीनी ।"" 'ज्ञान और योगके साथ-साथ भाव-भक्ति भी कबीरदासके अन्तर्जगत्की अन्यतम विभूति थी । और उसको उन्होंने अपने गुरुकी देनके रूपमे स्वीकार किया है। उनके गुरु रामानन्द थे और उन्होंने कहा, "भक्ति द्राविण ऊपजी लाए रामानन्द | परगट किया कबीरने सप्तदीप नव खण्ड ।" दादू साहबने ललचाते हुए घोषित किया, "यदि सद्गुरु मिल जाये, तो भक्ति और मुक्ति दोनों ही के १. त्रिलोकीनारायण दीक्षित, सन्तदर्शन, साहित्यनिकेतन, कानपुर, १६५३ ई०, पृ० २६, पादटिप्पण १ । २. भवसागर के तरन को पलटू संत जहाज । पलटू साहब, गुरुका अंग, १६वी साखी, सन्तसुधासार, दिल्ली, दूसरा खण्ड, पृ० २६७ । ३. ता का पूरा क्यों, गुरु न लखाई बाट । ताको बेड़ा बूड़िहै, फिर फिर औघट घाट | कबीरदास, गुरुदेव कौ अंग, संत सुधासार, पहला खण्ड, २०वीं साखी, पृ० १२० । ४. कहाँ कहाँ लौ भेद मैं, बुध थोरी गुन भूर । • हेमराज सेवक हृदय, भक्ति करो भरपूर ॥ पाण्डे हेमराज, गुरु-पूजा, जयमाला, ७वॉ पद्य, १६५६ ई०, पृ० ३१३ । ५. कबीर ग्रन्थावली, डॉ० श्यामसुन्दरदास सम्पादित, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, चतुर्थ संस्करण, परिशिष्ट, पदावली तीसरा पद, पृ० २६४ ॥ ६. डॉ० गोविन्द त्रिगुणायत, कबीरकी विचारधारा, कानपुर, वि० सं० २००६, पृ० ३२४ ।

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