Book Title: Hindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Author(s): Premsagar Jain, Kaka Kalelkar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 486
________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि सम्बन्धित अनेक प्राचीन स्तुति-स्तोत्र भी उपलब्ध हुए है, जिनका विवेचन इसी ग्रन्थके दूसरे अध्यायमें किया गया है। आचार्य पूज्यपादने तो प्रेमको ही भक्ति कहा है। इसी कारण 'सिद्ध' में जो रसविभोरता है, वह बौद्धोंको निराकारोपासनामें उपलब्ध नहीं होती। बुद्ध प्रतिपद' पर जोर देते हैं, जब कि भक्ति 'प्रपत्ति' से अधिक आश्वासन ग्रहण करती है । बुद्ध केवल ज्ञानरूप है, जब कि सिद्ध ज्ञानके साथ-साथ प्रेरणाजन्य कर्तृत्वके कारण भक्तके आराध्य भी। जैनोंने केवल सिद्ध में ही नहीं, किन्तु पंचपरमेष्ठीमें भो आसक्तिको शुभ माना है, और परम्परया उसे मोक्षका कारण कहा है। बौद्ध भगवान् बुद्धकी आसक्तिको भी उचित नहीं मानते। कबीरकी निर्गुण राममें आसक्ति प्रसिद्ध ही है। अतः विद्वानोंका यह कथन कि कबीरकी निर्गुणोपासना बौद्ध साधनासे प्रभावित थी, अशुद्ध है। उसका आसक्तिवाला रूप जैन साधनाके अधिक निकट है। यहां पं० रामचन्द्र शुक्लका यह कथन कि भारतीय ब्रह्म केवल ज्ञानक्षेत्रका विषय था, ठीक नहीं प्रतीत होता। कुछ भी हो, निर्गुण ब्रह्म और सिद्ध दोनों ही में दार्शनिकोंकी शुष्कता नही थो। यदि ऐसा होता तो कबीरके लालकी लालीको देखनेवाली लाल कैसे हो जाती। उनके लालमे 'पीउ' का सौन्दर्य है और रमणीयता भी, तभी तो आत्माने स्वयं 'बहुरिया' बननेमें चरम आनन्दका अनुभव किया है । वह 'पीउ' जब उसके घर आया, तो घरका आकाश मंगलगीतोंसे भर गया और चारों ओर प्रकाश छिटक उठा । जायसीने ब्रह्मको "पिउ' के नहीं, अपितु प्रियतमके रूपमें देखा है। इसीलिए उसमें कबीरके ब्रह्मसे अधिक मादकता है और आकर्षण । कबीरके लालको देखनेवाली ही लाल हो पायी है, किन्तु जायसीके प्रियतमको देखनेवाली स्वयं लाल होती है और उसे समूचा विश्व भी लाल दिखाई देता १. डॉ० भरतसिंह उपाध्याय, बौद्धदर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, द्वितीय भाग, बंगाल हिन्दी मण्डल, वि० सं० २०११, पृ० १०६३ । २. "हरि मेरा पीउ में हरि की बहुरिया" सन्तसुधासार, कबीरदास, सबद, २१वाँ पद्य, पृ० ६६ । ३. दुलहिनी गावहु मंगलचार, हम घर आये हो राजा राम भरतार ॥ कबीर ग्रन्थावली, चतुर्थ संस्करण, पद-पहला पद्य, पृ० ८७ । • ४. मंदिर माहिं भया उजियारा, ले सूती अपना पिव प्यारा॥ वही, दूसरा पद, ८७।

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