Book Title: Hindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Author(s): Premsagar Jain, Kaka Kalelkar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 458
________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि श्वास को शबद घोर', 'जैसे निशिवासर कमल रहे पंक ही में' और 'शोभित निज अनुभूति जुत चिदानंदभगवान' पंक्तियोमे श का ही प्रयोग हुआ है। ___ इस युगके जैन कवियोमें संयुक्त वर्णोको स्वर विभक्तिके द्वारा पृथक्-पृथक् करनेको प्रवृत्ति अधिकाधिक परिलक्षित होती है। बनारसीदासने 'ज्ञानबावनी'मेलबधि ( लब्धि ), अध्यातम ( अध्यात्म ), सबद ( शब्द ), 'पंचपदविधान' मेपरसिद्ध (प्रसिद्ध), 'अध्यात्मपदपंक्ति'मे-परतछ (प्रत्यक्ष), 'अर्धकथानक' मेंजनम ( जन्म ), पारस ( पार्श्व ) और 'नाटक समयसार' मे-निरजरा (निर्जरा), दरसन (दर्शन), पदारथ (पदार्थ)-जैसे प्रयोग अधिक किये है । महात्मा आनन्दधनके पदोमे भी संयुक्त वर्णोका पृथक्करण हुआ है। उन्होंने 'आत्मा' को 'आतम', 'भ्रम' को 'भरम', 'सर्वंगी' को 'सरवंगी', 'परमार्थ' को 'परमारथ' और 'वृत्तान्त' को 'विरतंत' लिखा है । द्यानतरायके पदोंमे यद्यपि संयुक्त वर्णोका प्रयोग अधिक है, किन्तु उनका पृथक्करण भी पर्याप्त रूपमे दिखाई देता है । उन्होने परमातम ( परमात्मा ), परमान ( प्रमाण), दरसन ( दर्शन ), विकलप (विकल्प ), सुमरन (स्मरण ), परमेसुर (परमेश्वर ), सरधा (श्रद्धा ), मरमी ( मर्मी ), मूरति ( मूर्ति ) का प्रयोग किया है । संयुक्त वर्णों को सरल बनानेका दूसरा उपाय है, उनमे-से एकको हटा देना। भूधरदासने 'पार्श्वपुराण'मे इस विधिको अपनाया है। उन्होने 'स्तुति' को 'थुति' 'चैत्य' को 'चैत', 'स्थान' को 'थान', 'द्युति' को 'दुति', 'स्थिति' को "थिति' और 'स्वरूप' को 'सरूप' लिखकर इसी नियमका पालन किया है । श्री यशोविजयने 'अक्षय' को 'अखय', 'ऋद्धि' को 'रिधि', श्री कुँअरपालने 'बुद्धि' को 'बुधी', 'आदित्य' को 'आदित', और भैया भगवतीदासने 'मोक्ष' को 'मोख', 'संयुक्त' को 'संजुत', 'अमृत' को 'अमी', 'स्पर्श' को 'परसे', 'शिवतीय' को 'शिवती', "स्थिरता' को 'थिरता' तथा 'जिनेन्द्र' को 'जिनंद' लिखा है । ___ इस युगके जैन कवियोंमे दो विशेषताएं सर्वत्र देखी जाती है-एक तो शब्दों का उचित स्थानपर प्रयोग और दूसरा प्रसाद गुण । हेमविजयसूरिके "मुनि हेम के साहब देखन कू, उग्रसेनलली सु अकेली चली" मे उग्रसेनलली, और "मुनि हेम के साहिब नेमजी हो, अब तोरन तें तुम्ह क्यूं बहुरे" मे 'बहुरे' ऐसे स्थानपर प्रतिष्ठित है कि उससे कविताका सौन्दर्य शतगुणित हो गया है । इसी भांति महात्मा आनन्दघनके "झडी सदा आनन्दघनबरावत, बिन मोरे एक तारी" मे 'बिन मोरे', भैया भगवतीदासके "भूलि गयो गति को फिरबो, अब तो दिन च्यारि भये ठकुरारे" मे 'ठकुरारे', भूधरदासके "मिलिक मिलापी जन

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