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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि उसमे प्रायः अठारहवीं शताब्दीकी रचनाएं है। उसी में विद्यासागरको छह कृतियां निबद्ध है।
विद्यामागर नामक दो कवि गुजरातीमे हो गये है, किन्तु दोनों ही सत्रहवी शताब्दीमे उत्पन्न हुए थे। एक तो तपागच्छीय विजयदान सूरिके शिष्य थे, उन्होंने सं० १६०२ में 'सुकौशल गीत'का निर्माण किया। दूसरे खरतरगच्छोय सुमतिकल्लोलके शिष्य थे। उन्होंने सं० १६७३ आसोज सुदी १० को 'कलावती चौपई' की रचना की थी। प्रस्तुत विद्यासागर उपर्युक्त दोनोंसे ही पृथक है। उन्होंने जो कुछ लिखा हिन्दीमे हो लिखा । उनका समय भी अठारहवी शताब्दीका पूर्वार्द्ध माना जाना चाहिए, जैसा कि उनकी रचनाओंसे स्पष्ट है । उन्होने संवत् १७३४ मे 'भूपाल स्तोत्र छप्पय'का निर्माण किया था।
विद्यासागर कारंजाके रहनेवाले थे। उनके पिताका नाम राखू साह था। वे बघेरवाल जातिमें उत्पन्न हुए थे। बघेरवाल जैनियोंकी एक उपजाति है, जो अब भी कारंजाकी तरफ अधिक रहती है। पिताके नामसे ऐसा स्पष्ट ही है कि ये एक साहूकार थे और लक्ष्मीको उनपर कृपा थी। वे धर्मनिष्ठ भी थे, भगवान् जिनेन्द्रकी भक्तिमे ही उनका अधिकतर समय व्यतीत होता था। विद्यासागर भी वैसे ही बने । वे मूलसंघ, सरस्वतीगच्छ, बलात्कारगणके शुभचन्द्रके गुरुभ्राता थे। उनके गुरुका नाम अभयचन्द्रसूरि था। विद्यासागर ब्रह्म विद्यासागर कहलाते थे। इससे स्पष्ट है कि वे ब्रह्मचारी थे। उनकी रचनाएं उनके भक्तहृदयको द्योतक है । प्रायः सभी मुक्तक हैं। उनमे सवैया और छप्पयोका अधिकतर प्रयोग किया गया है। रचनाएँ
'सोलहस्वप्न छप्पय' नामको कृतिमे तीर्थकरकी मांके सोलह स्वप्नोंका भक्ति-मय विवेचन है। इसमे केवल ९ पद्य हैं और यह अठारहवी शताब्दीके प्रथम पादमे लिखी गयी थी।
"जिन जन्म महोत्सव षट्पद'मे भगवान् जिनेन्द्रके जन्मकालीन महोत्सवकी शांकी है। इस अवसरपर इन्द्र इन्द्राणी तथा अन्य देवोंसहित आकर विविध उत्सवोंकी रचना करता है। उसीका एक सफल चित्र इस छोटे से काव्यमें प्रस्तुत किया गया है। इसका रचनाकाल भी अठारहवीं शताब्दीका प्रथम पाद ही है। इसमे कुल १२ पद्य है । एक पद्य देखिए,
१. जैन गुर्जरकविओ, खण्ड १, भाग ३, पृ० क्रमश: ६४७, ६६६ ।