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लन लेखकों के दिमाग में नहीं था- यदि कोई बात, गद्यशैली के विषय में, किसी के दिमाग में आई भी थी, तो वे इन्शाअल्ला खां थे, जिन्होंने विशुद्ध हिन्दी गद्य का नमूना. अपने समय के लेखकों के लिए, अपनी विशेष शैली में पेश किया । अब वह भी इतिहास की ही वस्तु समझिये । इसका उल्लेख हमने अपनी भूमिका के प्रारम्भ मे कर दिया है।
हिन्दी गद्य कैसा होना चाहिए-जनता में इसका आन्दोलन राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द के समय से ही प्रारम्भ हुआ; और अब तक वरावर चला आता है । जो भी कुछ हो, हमारे नवयुवक लेखकों को अपनी निज की कोई न कोई शैली अवश्य बनानी पड़ेगी। और यह तभी होगा जब उनमें , अपने निज के कुछ न कुछ हृद्गत भाव हों-यहो उनकी मौलिकता होगी। लेखकगण उन भावों को उद्गार रूप में अपनी लेखनी से निकालें, तो शब्द उनके गुलाम हैं । शब्द तो आप ही आप यथास्थान निकलते आते हैं, उनको खींच-खींच, कर लाना नहीं होता । जो आडम्बर पूर्वक किसी विशेष उद्देश्य से-शब्द खींच खींच कर लाते हैं, उनकी भाषा और शैली मे कृत्रिमता, अस्वाभाविकता अवश्य .श्रा जाती है। उसको हम सजीव शैली नहीं कह सकते, जैसे कि आजकल के कई वक्ता और लेखक-जो राजनैतिक प्रभाव में पड़ कर "हिन्दी-हिन्दुस्तानी” की-अथवा हिन्दी-उर्दू की खिचड़ी पकाना चाहते हैं-जानबूझ कर अपने व्याख्यानों और लेखों मे, उदू-फारसी के कई शब्द, अस्थानीय रूप से, घुसेड़ देने की चेष्टा करते दिखाई देते जाते हैं। ये लोग अस्वाभाविक रूप से इस बात का अभ्यास करते देखे जाते हैं कि उनकी भाषा में-चाहे वे ठौर-कुठौर ही क्यों न हो-कुछ उदू-फारसी के शन्द जरूर श्रा जावें । परन्तु, 'हिन्दी' को 'हिन्दुस्तानी' बनाने के लिए इस प्रकार का प्रयत्न उपहासास्पद ही होगा। हम उर्दू फारसी के शब्दों को हिन्दी भाषा में व्यवहत करने के विरोधी नहीं हैं । हमारे प्रति दिन के बोलचाल के विदेशी शब्द चाहे जितने हमारी भाषा में श्रा जावे-परन्तु विशेष रूप से, किसी आग्रह या दुराग्रहवश, यदि हम हिन्दी में उनको घुसेड़ने लग जायेंगे, तो भाषा और उसकी शैली में कृत्रिमता आये बिना न रहेगी। उसकी