Book Title: Harivanshpuranam Purvarddham
Author(s): Darbarilal Nyayatirth
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 8
________________ गुरुपरम्परा ग्रन्थकर्त्ताने ६६ वें सर्गमें अपनी गुरुपरम्परा खूब विस्तारके साथ दी है । यह परम्परा लोहाचार्य तक ही अन्य ग्रन्थकर्ताओंकी लिखी हुई परम्पराओंसे मिलती है । उनके बादकी परम्परा बिल्कुल जुदी है। यह विभिन्नता इतिहासज्ञोंके लिए खास तौरसे विचारणीय है। यहाँ इस परम्पराके समस्त आचार्योंकी नामावली देनेकी आवश्यकता नहीं जान पड़ती । उनमें आचार्य अमितसेनको 'पवित्रपुन्नाटगणाग्रणी गणी' लिखा है, जो सौ वर्षसे अधिक जीवित रहे थे, बड़े भारी तपस्वी थे और जिन्होंने सुशास्त्रदानसे, अपनी वदान्यता संसारमें प्रकाशित की थी। इनके अग्रज और धर्मसहोदर कीतिषेण थे, जिनके प्रधान शिष्य जिनसेनने इस ग्रन्थकी रचना की। आदिपुराणके कर्तासे पार्थक्य यहाँ हम यह प्रकट कर देना चाहते हैं कि हरिवंशपुराणके कर्ता जिनसेनके साथ आदिपुराणकार जिनसेनाचार्यका नाम-साम्यके अतिरिक्त और कोई सम्बन्ध नहीं है। दोनों प्रायः समकालीन थे, इस कारण बहुतसे इतिहासज्ञोंने दोनोंको एक समझ लिया है, परन्तु नीचे लिखी बातोंपर विचार करनेसे पाठकोंको इनका पार्थक्य अच्छी तरह समझमें आ जायेगा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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