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(२५) संघान्वय' होना चाहिए । 'पुंनागवृक्षमूलगण' से ही मिलता जुलता यह कोई 'श्रीमूलमूलगण' है । पुन्नाग. के समान श्रीमूल नामका ही कोई वृक्ष होना चाहिए, जिसके मूलसे आनेवाले मुनिसमूहको यह नाम दिया गया होगा। संस्कृत कोशोंमें यह शब्द नहीं मिला । संभव है यह पुरानी कनड़ी भाषाका कोई शब्द हो और इसका अर्थ शाल्मलि या अशोक हो, जिन वृक्षोंके मूलसे आनेवाले मुनियोंका श्रुतावतारमें उल्लेख है।
श्रुतावतारके अनुसार खण्डकेसरद्रुममूलसे आनेवालोंको सिंह चन्द्र या भद्र संज्ञा दी गई थी, परन्तु पुनागवृक्ष-मूलगणक पूर्वोक्त नामोंके अन्तमें 'कीर्ति' है, तथा श्रीमूल मूलगणके उक्त आचा योंके नाम नन्द्यन्त तथा चन्द्रान्त हैं जो श्रुतावतारके अनुसार नहीं हैं, सो इसके विषयमें हम पहले ही कह चुके हैं कि एक तो यह संज्ञानिर्माण उपपत्तिपूर्वक समझमें ही नहीं आता है, दूसरे और बहुतसी परम्पराओं के नामोंमें इन संज्ञाओंका व्यतिक्रम भी देखा जाता है । उदाहरणके लिए पंचस्तूपान्वयको ही ले लीजिए । श्रुतावतारके कथनानुसार इस अन्वयके तमाम मुनि सेन और भद्र अथवा मत विशेषके अनुसार केवल सेनसंज्ञान्त होने चाहिए थे; परन्तु हम देखते हैं कि वीरसेनके दादागुरु आर्यनन्दिके और जिनसेनके सधर्मा दशरथ गुरुके नामोंमें ये संज्ञा नहीं हैं । इसी प्रकार श्रवणबेलगोलाके १८९ वें शिलालेखमें
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