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ग्रन्थ-मुद्रणके विषयमें सुप्रसिद्ध ग्रन्थोद्धारक पं० पन्नालालजी वाकलीवालने कलकत्तेकी जैनसिद्धान्तप्रकाशिनी संस्थाकी ओरसे इस ग्रन्थको प्रकाशित करनेका निश्चय किया था और प्रारंभके चार फार्म मुद्रित भी करा लिये थे; परन्तु कुछ अज्ञात कारणोंसे उन्हें मुद्रण-कार्य रोक देना पड़ा । इधर ८-१० वर्ष बीत जानेपर भी जब वहाँसे प्रकाशित होनेकी आशा नहीं रही, तब मैंने माणिकचन्द्र-ग्रन्थमालाके द्वारा इस कार्यको सम्पन्न करनेका विचार किया और मेरी प्रार्थनापर 'गुरुजी'ने छपे हुए फार्म और शेष सम्पूर्ण 'प्रेस-कापी ' भेज दी । मुख्यतः उक्त चार फार्मों और शेष वापी परसे ही यह ग्रन्थ छपाया गया है। इस कापीका टिप्पणीमें क-प्रतिके नामसे उल्लेख किया गया है। यह मालूम न हो सका कि संस्थाके पण्डितोंने उक्त प्रेस-कापी किस मूल प्रतिके आधारसे की थी।
ख-यह प्रति 'वैशाखकृष्णत्रयोदश्यां चंद्रवासरे संवत् १९७१, की लिखी हुई है और प्रायः शुद्ध है । जैनमित्रमंडल देह लीके उत्साही कार्यकर्ता बाबू पन्नालालजीकी कृपासे यह हमें प्राप्त हुई थी।
ग-यह प्रति अधूरी है । इसमें शुरूसे दसवें सर्गके ७२ वें श्लोक तकके और फिर २३ ।
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