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ग्रन्थोंकी विक्रीसे ही ग्रन्थमालाका आगामी कार्य चलाना चाहें, तो अब वर्ष भरमें मुश्किलसे एक दो छोटे छोटे ग्रन्थ ही प्रकाशित हो सकेंगे, जिनसे किसी प्रकार सन्तोष नहीं हो सकता है। हमारे सामने स्याद्वादविद्यापति वादिराजसूरिका न्याय-विनिश्चयालंकार, प्रभाचन्द्राचार्यका न्यायकुमुदचन्द्रोदय, अनन्तवीर्यकी सिद्धिविनिश्चय-टीका, हरिषेणका बृहत्कथाकोश आदि अनेक बड़े बड़े अलभ्य और अतिशय महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित करनेके लिए रखे हुए हैं और इन चारोंकी तो अधूरी प्रेस-कापियाँ तक हमने तैयार करा ली हैं; परन्तु धनके अभावसे इन्हें प्रकाशित नहीं कर सकते । क्या हम आशा करें कि धर्मके नामसे प्रतिवर्ष लाखों रुपया खर्च करनेवाला जैनसमाज इस ओर ध्यान देगा और अपने पूर्वजोंकी बहुमूल्य कृतियोंको संसारके विद्वानोंके सम्मुख उपस्थित करनेका श्रेय प्राप्त करेगा ?
अन्तमें यह कह देना अनुचित न होगा कि इस ग्रन्थमालाने थोडीसी पूँजीसे जितने अधिक और महत्त्वपूर्ण ग्रन्थोंका उद्धार किया है, उतना और किसी भी संस्थाने नहीं किया और इसलिए यह सहायता पानेकी सबसे अधिक अधिकारिणी है । घाटकोपर, बम्बई
निवेदक२१-१०-३०
नाथूराम प्रेमी
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