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इससे प्रतीत होता है कि देवसेनकी दृष्टिमें जो संघ जैनाभास था, वह हरिवंश पुराणके कर्ताकी दृष्टिमें पूज्य था और इस कारण हम पुन्नाटसंघको भी द्राविडसंघकी ही कोटिका समझ सकते हैं । गंगवंशीय नरेश सत्यवाक् कोङ्गणिवर्मा के राज्यकालका नवमी शताब्दिका एक शिलालेख है * जिसमें एरेयप्पा नामक किसी राजपुरुषने कुमारसेन भट्टारकको जिनेन्द्रभवन के लिए एक ग्राम दान किया है | कुमारसेन किस संघके थे, यह उक्त लेखमें नहीं लिखा; परंतु संभवतः वे पुन्नाटसंघ या द्राविड़संघके ही होंगे, जिन संघों में ग्रामादि दान ग्रहण करनेकी परिपाटी थी और इसलिए जिनकी गणना जैनाभास हो सकती है ।
प्रयत्न करने से इस प्रकारके और भी अनेक प्रमाण मिल सकते हैं ।
हरिवंश पुराणकी रचना वर्द्धमानपुरके नन्नराजवसति नामके पार्श्वनाथ मन्दिर में रहकर की गई थी । इससे भी मालूम होता है कि पुन्नाटसंघके मुनि जैनमन्दिरोंमें रहते थे, अर्थात् चैत्यवासी थे और इसलिए भी उन्हें देवसेनसूरिके शब्दों में जैनाभास कहा जा सकता
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हरिवंशपुराणके कर्त्ता जिनसेनसूरिने और किसी ग्रन्थकी रचना की या नहीं, यह नहीं
* एपिग्राफिआ कर्नाटक की दूसरी जिल्दका १४८ वाँ लेख ।
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