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(२३) २-राष्ट्रकूटनरेश द्वितीय प्रभूतवर्षका एक दानपत्र शक संवत् ७३५ का लिखा हुआ इंडियन एण्टिक्वेरी ( १२।१३-१६ ) में प्रकाशित हुआ है, जिसमें मान्यपुरके शिलाग्राम नामक जिनमन्दिरको जालमंगल ग्राम दान किया गया है । उसका निम्नलिखित अंश देखिए
__" ......... श्रीयापनीयनन्दिसंघपुनागवृक्षमूलगणे श्रीकीर्त्याचार्यान्वये बहुष्वाचार्येष्वतिक्रान्तेषु व्रतसमितिगुप्तिगुप्तमुनिवृन्दवन्दितचरणकुवलियाचार्याणामासीत ( ? ) तस्यान्तेवासी समुपनतजनपरिश्रमाहारः स्वदानसंतर्पितसमस्तविद्वजनोजनितमहोदयः विजयकीर्ति नाम मुनिप्रभुरभूत् ।
___ अर्ककीर्तिरिति ख्यातिमातन्वन्मुनिसत्तमः ।
तस्य शिष्यत्वमायातो नायातो वशमेनसाम् ।। तस्मै मुनिवराय.........दत्तवान्......"
इसके 'श्रीयापनीय-नन्दिसंघ-पुंनागवृक्षमूलगणे' पदपर विशेष विचार करनेकी आवश्यकता है । श्रुतावतारमें खण्डकेसरद्रुममूलसे आनेवाले मुनियोंका उल्लेख है । खण्डकेसर और पुंनाग पर्यायवाची शब्द हैं, अतएव खण्डकेसरद्रममूल और पुंनागवृक्षमूलका एक ही अर्थ होगा । जिस तरह वीरसेन और जिनसेन पंचस्तूपान्वयके आचार्य थे, उसी प्रकार पूर्वोक्त दानपत्रवाले विजयकीर्ति और अर्ककीर्ति आचार्य पुंनागवृक्षमुलान्वयके थे और जिस तरह वीरसेन जिनसेनको सेनसंघ-पंचस्तूपान्वय
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