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प्रशिष्य थे ।....उनके शिष्य जिनसेन हुए, जिनके कान अविद्ध होनेपर भी ज्ञानेशलाकासे वेधे गये ।
इसी तरह जिनसेनस्वामीके गुरु वीरसेनने भी धवलाटीकाकी प्रशस्तिमें अपना संघ पंचस्तूपान्वय बतलाया है--
अज्जज्जणंदिसिस्सेणुज्जवकम्मस्स चंदसेणस्स ।
तहणत्तुवेण पंचत्थूहण्णयभाणुणा मुणिणा ।। ४ ॥ अर्थात् आर्य आर्यनन्दिके शिष्य, चन्द्रसेनके प्रशिष्य और पंचस्तूपान्वयके सूर्य वीरसेनस्वामीने।
इन उद्धरणोंसे स्पष्ट है कि पंचस्तूपान्वय और सेनान्वय एक ही हैं और श्रुतावतारमें जो 'अन्ये जगुः' कहकर दूसरा मत दिया गया है कि पंचस्तूपोंसे आनेवालोंको सेन संज्ञा दी गई, सो ठीक ही है । पंचास्तूपान्वयी मुनियोंने ही सेन संज्ञा धारण की थी, जो आगे चलकर प्रधान बन गई और भगवजिनसेनके शिष्य गुणभद्राचार्यने अपने उत्तरपुराणमें केवल उसीका उल्लेख करना आवश्यक समझा, पंचस्तूपान्वयका जिक्र भी न किया ।
__+ जिनसेनस्वामी आविद्धकर्ण थे, इसका भाव यह है कि कर्णवेध-संस्कार होनेके पहले ही-बहुत ही थोड़ी अवस्थामें-उन्होंने दक्षिा ले ली थी।
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