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(२१) या सेनसंघ हुआ । अन्यान्य ग्रन्थकर्ताओंने भी उन्हें सेनसंघका बतलाया है; परन्तु स्वयं जिनसेनने अपनी जयधवलाटीकाकी प्रशस्तिमें * आपको ‘पंचस्तूपान्वयी ' बतलाया है--
यस्तपोदीप्तीकरणैर्भव्यांभोजानि बोधयन् । व्यद्योतिष्ट मुनी...पंचस्तूपान्वयाम्बरे ॥ २० ॥ प्रशिष्यश्चन्द्रसेनस्य यः शिष्योप्यार्यनंदिना । कुलं गुणं च संतानं स्वगुणैरुदजिज्वलत् ।। २१ ॥
तस्य शिष्योऽभवच्छ्रीमान् जिनसेनसमिबुधीः ।
अविद्धावपि यत्कौँ विद्धौ ज्ञानशलाकया ॥ २३ ॥ इसका भावार्थ यह है कि पंचस्तूपान्वयरूप आकाशमें अपनी तपश्चर्याकी प्रदीप्त किरणोंसे भव्य-कमलको प्रबुद्ध करनेवाले ( वीरसेन स्वामी ) उदित हुए जो आर्यनन्दिके शिष्य और चन्द्रसेनके
* देखो जैनहितैषी भाग १५, अंक ९-१० में 'पं० जुगलाकशोरजीका भगवज्जिनसेनका विशेष परिचय शीर्षक लेख ।
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