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मतभेदका कारण इन मतभेदोंसे साफ मालूम होता है कि आचार्य इन्द्रनन्दिको भी इस विषयका यथेष्ट और स्पष्ट ज्ञान नहीं था और गुणधर तथा धरसेन मुनिके पूर्वापरक्रमकी चर्चा करते हुए उन्होंने इसे स्वकिार भी किया है कि इस विषयके कथन करनेवाले आगम और मुनियोंका अभाव है * | इसी लिए इस संज्ञा-प्रकरणकी कोई स्पष्ट उपपत्ति समझमें नहीं आती है। यह नहीं जान पड़ता है कि गुहानिवासी क्यों ' नन्दि ' कहलाये और अशोकवाटिकावालोंको क्यों ' अपराजित ' संज्ञा दी गई, अथवा पंचस्तूपोंसे 'सेन' शब्दका और नागकेसरसे 'सिंह' शब्दका क्या संबंध है । यह भी नहीं मालूम होता है कि ये संज्ञायें अमुक अमुक समूहके मुनि-नामोंके साथ ही लगाई जाती थीं या जुदा जुदा मुनिसमूह इन संज्ञाओंसे अभिहित किये जाते थे । क्योंकि एक ही परम्पराके मुनियोंमें भी इन नामान्त संज्ञाओंका व्यतिक्रम देखा जाता है ।
* गुणधरधरसेनान्वयगुर्वोः पूर्वापरक्रमोऽस्माभिः । ___ न ज्ञायते तदन्वयकथकागममुनिजनाभावात् ॥ १५१ ।।
-श्रुतावतार
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