Book Title: Gyandhara 06 07
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Saurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
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राजपाट, चक्रवर्ती का वैभव छोडकर निग्रंथ होकर साधुता को ग्रहण करना माना है। फिर तुच्छ वैभव क्या चीज है। संग्रह ने मानव को अनेक रोगों से पीडित किया है। मेरा-तेरा के चक्कर में डाला है। यह धन-वैभव वास्तव में आत्मा पर बोझ ही है अतः उससे मुक्त होना ही खाली हो जाना ही वास्तविक सम्पन्नता है।
हमारे दर्शन में "चारित्र को ही धर्म कहा है।" "चारित्तोखलु धम्मो" यद्यपि एकांगी अर्थ में चारित्र का पर्यायवाची ब्रह्मचर्य माना गया है, पर चारित्र के अन्तर्गत वह सब आता है जो मनुष्य के अन्दर स्खलन पैदा करता है। अणुव्रती के लिए सभी पाप कार्य स्खलन ही कराते है तो महाव्रती के लिए वे पूर्ण पाप के कारण बनते हैं। पर चारित्र को ब्रह्मचर्य के साथ ही जोडे तो वर्तमान शिक्षा, सिनेमा, टी.वी. ने खुले आम व्यभिचार के बजार को गर्म किया है। आज माँ-बाप, बुजुर्गो की मर्यादा नष्ट हो गई है। संस्कार जैसे गायब है, धर्म खिल्ली उडाने का माध्यम बन गया है। कामवासना का सर्प, उसकी फैंकार और जहर सर्वत्र फैल रहा है। इस कारण व्याभिचार जैसे आधुनिकता का पर्याय बन रहा है। विशेष रूपसे नारी अंग प्रदर्शन का माध्यम और अब तो कोख किराये से बेचनेवाली बन कर पूरी संस्कृति की विनाशिका बन रही है। वास्तव में उनकी आत्मा ही मर गई है फिर उसका उन्नयन कैसे होगा? .
हम जैन साहित्य दर्शन को पढे तो स्पष्ट पता चलता है कि गृहस्थाश्रम में बालक २५ वर्षों तक अध्ययन करता था। उसे माँ-बहन-बेटी पत्नी के स्पष्ट अंतर को समझाया जाता था। विवाह वासना के अर्थ मात्र न होकर संतति द्वारा धर्म-रथ क चलाने का माध्यम थाय हमारे पूर्वजों, ऋषि मुनियों ने तो स्पष्ट माना था कि ५० वर्षा की उम्र के पश्चात पति-पत्नी को ब्रह्मचर्यव्रत से रहना चाहिए। वे ऋषिमुनि जिनमें अनेक राजा हुए, अपनी अनंत सौन्दर्यवती पत्नियों का त्यागकर ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर कामजयी बनें। स्त्रियाँ भी साध्वी व्रत धारण कर इसी मार्ग पर चली। यह था हमारा संस्कार और आत्मा के साथ तादात्म्य भावं। जबतक काम की निर्जरा नहीं जागधारा ६-७ ३१
साहित्य SIMAR F-3