Book Title: Gyandhara 06 07
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Saurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
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पदो में परमेष्ठी के गुणों का वर्णन है किसी तीर्थंकर या भगवान का नहीं। संसार के जिस किसी में भी ये गुण है वे सभी वंदनीय है। जैनधर्मी मधुमक्खी की तरह उत्तम पुष्परुपी गुणों का यत्र-तत्र-सर्वत्र से संकलन करता है। यह सच है कि जिस धर्म में ऐसा गुण हो उसके माननेवाला आत्मा से पवित्र उँचे होते है। __ यदि जैनधर्म पंच पापों एवं कषायों के कारण कर्म के बँध को मानता है तो उन बँध कर्मों की निर्जरा या नष्ट करने की लिए बार तपों का मार्ग प्रशस्त कर तप-ध्यान से उन्हें नष्ट करने का उपाय भी बताता है। मूलतः जैनधर्म एक ही बात पर ध्यान देता है कि व्यक्ति में बुराईयों का प्रवेश न हो, यदि हो भी जाये तो उन्हें नष्ट करने का स्वयं मार्ग भी अमल में लावे।. . - एक बात और - जैनधर्म एक मात्र ऐसा धर्म है जो प्राणिमात्र की स्वतंत्रता का स्वीकार करता है। व्यक्ति स्वयं का कर्ताभोक्ता तो ही, स्वयं मुक्ति का प्राप्तकर्ता भी है। यही स्वतंत्रता वास्तव में उसे जिम्मेदारी के प्रति सजाग रखकर स्वच्छंद होने से बचाती है। उसे मुक्ति के लिए अन्य की शरण नहीं जाना है, अपितु स्वयं की शरण जाना है।
- जैनदर्शन ने उसे एक त्रिमार्ग पर कडा कर दिया है। दर्शन-ज्ञानचारित्र के तिगड्डे पर खड़ा रहकर उसे ही रास्ता तय करना है। उसे मोक्ष के मार्ग का दिशा निर्देश कर दिया है। चलना उसे स्वयं है कोई उसे चलायेगा नहि। यही आत्मबल और आत्मश्रद्धा उसकी आत्मजागृति आत्म उन्नति का कारण भी है। इसका एक कारण यह भी है कि जैनधर्म ने कर्म को कभी भाग्य का पर्यायवाची नही माना। कर्म ज्ञान के साथ निर्णय करने की शक्ति प्रदान करता है, जबकि भाग्य अनजान राहों पर भटकने को छोड़ देता है। इस दृष्टि से व्यक्त अपने ही कर्मो से अपना भाग्यविधाता बननेकी शक्ति रखता है।
जैनधर्म ने कक्षा एक से कक्षा १४ अर्थात बी.ए. तक का कोर्स तय
(जानधारा -
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