Book Title: Gyandhara 06 07
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Saurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
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ज्ञान प्राप्त करते जाते है। एक ओर चरित्र दृढ बनता है तो साथ ही ज्ञान में अभिवृद्धि होती है।
जब हम श्रद्धायें दृढ, ज्ञान में कुछ परिपक्तवता पा लेते है तब हम द्रव्यानुयोग अर्थात धर्म के तत्त्वचिंतन को समझने योग्य बनते है। हमारा लक्ष्य आत्मा जो चैतन्य है उसे पुद्गल शरीर से मुक्ति दिलाकर आवागमन जन्म-मरण से मुक्त करता होता है। उसी आत्मा रुपी द्रव्य का गहनतम अध्ययन करके एकदिन हम स्वयं परमात्मा या मुक्तात्मा बन जाते है।
यों कहना सही होगा कि प्रथम दो अनुयोग बहिरात्मा को अन्तरात्मा में ले जाते है। चारित्र की दृढता उसे अन्तरात्मा में स्थिर बनाती है और आत्मा का चिंतवन-आचरण उसे अन्तरात्मा से परमात्मा बनाता है। यही तो हमारा ध्येय होता है या होना चाहिए।
अंत में इतना ही कि हमारे आगम मे वर्णित चारों अनुयोगों का ज्ञान हमारे आत्मोन्नति में सहायक है। ये चिरंतन है अतः ऐसे दस्तावेज है जो कभी पुराने नही होते. जैसे-जैसे जितनी बार उनका अध्ययन करेंगे उनमें अधिक नाविन्य प्रकट होगा। बस आवश्यकता है दृष्टि बदलने की।अपने और अपनों को पहिचानने की।
(जागधारा ६-
३ ६)
साहित्य ज्ञानAN E-)