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गुरु-शिष्य
आसक्ति हो या दूसरी आसक्ति हो, वे किस काम के? हमें जो रोग है, उन्हें भी वही रोग है। दोनों रोगी । अस्पताल में जाना पड़ता है ! वे मेन्टल होस्पिटल के मरीज़ कहलाते हैं। किसी प्रकार की आसक्ति नहीं हो, तो वैसे गुरु बनाए हुए काम के ।
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रोज़ पकोड़ियाँ खाता हो या लड्डू खाता हो तो भी हर्ज नहीं है, आसक्ति है या नहीं उतना ही देख लेना है। अरे, कोई सिर्फ दूध पीकर रहते हों, लेकिन आसक्ति है या नहीं उतना ही देखना है । यह तो सभी गुरुओं ने तरह-तरह के नखरे दिखाए हैं। ‘हम ये नहीं खाता, हम वो नहीं खाता !' छोड़ न झंझट । खा ले न, जो है यहाँ ! खाना नहीं मिल रहा या खा नहीं रहा है? ये तो लोगों के सामने नखरे दिखाने हैं । यह तो एक प्रकार का बोर्ड है कि 'हम ये नहीं खाता, हम ये नहीं करता।' यह तो लोगों को खुद की तरफ खींचने के लिए बोर्ड रखे हैं। मैंने ऐसे कई बोर्ड देखे हैं हिन्दुस्तान में । अर्थात् आसक्ति रहित गुरु चाहिए । फिर वह खाता हो या नहीं खाता हो, हमें वह देखने की ज़रूरत नहीं है।
जिसे किंचित् मात्र भी आसक्ति है, वैसे को गुरु बनाएँ तो काम में नहीं आएँगे। ये आसक्तिवाले गुरु मिलने से तो पूरा जगत् टकरा - टकराकर मर गया है। आसक्ति का रोग नहीं हो, तब गुरु कहलाते हैं। किंचित् मात्र आसक्ति नहीं होनी चाहिए।
कितनी कमी निभाई जाए?
प्रश्नकर्ता : गुरु की गति गहन होती है, इसलिए उनका पूर्व परिचय हो, तब समझ में आता है, नहीं तो बाह्य आडंबर से तो पता नहीं चलता ।
दादाश्री : दस-पंद्रह दिन साथ में रहें, तब चंचलता का पता चलता है। जब तक वे चंचल हैं न, तब तक अपने दिन नहीं फिरेंगे। वह अचल हो चुका होना चाहिए ।
दूसरा, उनमें क्रोध - मान - माया - लोभ का एक भी परमाणु नहीं रहा होना चाहिए या फिर कुछ अंशों तक कम हुए हों, तो चलेगा, चला सकते हैं । लेकिन