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गुरु-शिष्य
दादाश्री : नहीं। फिर भी भीतर है, वैसा खुद का फल खुद को मिलता है। खुद उल्टा करे तो उल्टा ही फल मिलता है। जब कि ज्ञानीपुरुष तो वीतराग कहलाते हैं। उन्हें आप धौल मारो तो भी वे आप पर समान दृष्टि नहीं तोड़ते। लेकिन जो आप देंगे, एक गाली दो तो सौ गालियाँ वापिस मिलेंगी, एक फूल चढ़ाओ, तो सौ फूल वापिस मिलेंगे।
अहंकार जाता है - कृपा से या पुरुषार्थ से? प्रश्नकर्ता : अहंकार से मुक्त होने के लिए स्व-पुरुषार्थ की ज़रूरत है या गुरु की कृपा ज़रूरी है?
दादाश्री : कृपा की ज़रूरत है। जिनका अहंकार जा चुका हो, वैसे सद्गुरु की कृपा की ज़रूरत है, तब अहंकार जाएगा। अहंकार का नाश करना, वह गुरु का काम नहीं है। वहाँ तो ज्ञानी का काम है ! गुरु वैसा ज्ञान कहाँ से लाएँगे? उनका ही अहंकार जाता नहीं न! जिनकी ममता नहीं गई है, उनका अहंकार कब जाएगा फिर? वह तो ज्ञानीपुरुष मिलें और जिन ज्ञानी में बुद्धि का छींटा भी नहीं हो, तब वहाँ पर उनके पास अहंकार चला जाता
प्रश्नकर्ता : संचित कर्म गुरु के द्वारा कलियुग में नष्ट हो सकते हैं?
दादाश्री : गुरु द्वारा तो नष्ट नहीं होते, लेकिन ज्ञानीपुरुष होने चाहिए, भेदविज्ञानी! जिनमें अहंकार नहीं हो, बुद्धि नहीं हो, वैसे भेदविज्ञानी हों तो कर्म नाश होते हैं। गुरु तो अहंकारी हों, तो तब तक वैसा कुछ भी नहीं होता।
प्रश्नकर्ता : शास्त्रों में भी ऐसा लिखा है कि गुरुगम्य ही जानना चाहिए।
दादाश्री : हाँ, पर गुरुगम्य मतलब क्या? आत्मा दिखे, तभी वह गुरुगम्य कहलाएगा। नहीं तो गुरुगम्य तो सभी बहुत लेकर फिरते हैं। आत्मा का अनुभव करवाए तो गुरुगम्य काम का है! वह तो आगम, और आगम से ऊपर हों, वैसे ज्ञानीपुरुष मिलें तब गुरुगम्य प्राप्त होता है।