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गुरु-शिष्य
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दादाश्री : मैं अपने आपको पूरे जगत् का शिष्य मानता हूँ और लघुत्तम स्वरूप हूँ। इसके सिवाय मेरा दूसरा कोई स्वरूप नहीं है। 'दादा भगवान', वे भगवान हैं, अंदर प्रकट हुए हैं, वे!
दिशा बदलने की ही ज़रूरत प्रश्नकर्ता : वर्तमान में भारत में आपकी कक्षा की दूसरी विभूतियाँ हैं
क्या?
दादाश्री : मुझे किस तरह पता चले? वह तो आप जाँच करते हो, तो आपको पता चलेगा। मैं जाँच करने नहीं गया।
प्रश्नकर्ता : आप शिखर (चोटी) पर हैं, इसलिए दिखता है न?
दादाश्री : परंतु मैं जिस शिखर पर हूँ, उससे बड़ा अगर कोई शिखर हो तो मुझे कैसे पता चले? शिखर पर गए हुए हर एक ने क्या कहा है, कि मैं ही अंतिम शिखर पर हूँ। परंतु मैं ऐसा नहीं कहता।
प्रश्नकर्ता : जो आप से छोटे शिखर हों, वे सब दिखते हैं न?
दादाश्री : छोटे दिखते हैं, लेकिन वे छोटे माने नहीं जाते। वस्तु तो एक ही है न! क्योंकि मैं जिस शिखर पर हूँ न, वहाँ लघुत्तम बनकर बैठा हुआ हूँ, व्यवहार में! जिसे व्यवहार कहते हैं न, जहाँ लोग गुरुत्तम होने गए, वहाँ मैं लघुत्तम हो गया हूँ। जब कि लोगों को, गुरुत्तम होने गए, उसका बदला क्या मिला? लघु बने। मेरा व्यवहार में लघुत्तम हुआ, इसलिए निश्चय में गुरुत्तम हो गया!
इस वर्ल्ड में मुझसे कोई भी लघु नहीं है, वैसा लघुत्तम पुरुष हूँ। यदि छोटा बन जाए तब तो वह बहुत बड़ा, भगवान हो जाए। फिर भी भगवान होना मुझे बोझ जैसा लगता है, बल्कि शर्म आती है। हमें वह पद नहीं चाहिए। किसलिए वह पद चाहिए? ऐसे काल में वह पद प्राप्त करना चाहिए? ऐसे काल में चाहे जैसा व्यक्ति भगवान पद लेकर बैठ गया है। इसलिए दुरुपयोग होता है बल्कि। हमें उस पद का क्या करना है? मैं ज्ञानी