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परम गुरु किसे कहा जाए?
एक दिन दादाश्री नीरू से कहते हैं, 'नीरूबहन, आप एक शिष्य रखिए न!' नीरू ने कहा, 'दादा, आप आज ऐसा क्यों कह रहे हैं? आप तो हमेशा हम सबसे कहते आए हैं कि मैं पूरे जगत् के जीव मात्र का शिष्य बना, तब मुझे यह ज्ञान प्रकट हुआ है ! तो आज मुझे आप गुरु बनने को क्यों कह रहे हैं?' तब दादाश्री ने हँसते-हँसते कहा, 'लेकिन एक शिष्य रखो न ! एक शिष्य रखने में आपको क्या हर्ज है?' तब नीरू ने कहा, 'नहीं दादा, मुझे आपके चरणों में, सेवा में रहने दीजिए न ! इस शिष्य को मैं कहाँ झेलूँ? मुझे वह पुसाए, ऐसा है ही नहीं ।' तब दादाश्री ने कहा, 'लेकिन मेरी बात तो समझो !' 'दादा, उसमें क्या समझना है? गुरु तो मुझसे बना जाता होगा?' तब फिर से दादाश्री बोले, ‘लेकिन मैं क्या कहना चाहता हूँ, वह तो समझो। ऐसा कीजिए न, इन नीरूबहन को ही अपना शिष्य बना दीजिए न !' ओहोहो ! दादा! आपने तो कमाल कर दिया! ‘सहजात्म स्वरूप परम् गुरु' का यथार्थ अर्थ अनुभव किया ! 'मैं' गुरुपद में और 'नीरू' शिष्य ! फिर दादाश्री ने विशेष स्पष्टीकरण किया, 'देखिए नीरूबहन, एक गुरु अपने शिष्य का कितना अधिक ध्यान रखते हैं? किस तरह मेरा शिष्य आगे बढ़े ? उसका सतत ध्यान रखते हैं । ऐसे ही आपको इन नीरूबहन का ध्यान रखना है । आप तो 'शुद्धात्मा' बन गए, लेकिन अब इन नीरूबहन को ऊँचे नहीं लाना है?' उस दिन से दादाश्री ने मेरा और नीरू का गुरु-शिष्य का व्यवहार शुरू करवा दिया । तब ज्ञानी की गहनता का यथार्थ ख्याल आया कि गुरु-शिष्य के लिए ज्ञानी की दृष्टि किस हद तक होती है ! कहाँ लौकिक गुरु बनाने की बात और कहाँ खुद के ही आत्मा को गुरुपद पर स्थापना करने की बात ! और सच्चे गुरु, अरे उन्हें ही परम् गुरु कहा जाता है ! दूसरे सब बाहरवाले गुरु तो घंटे, दो घंटे उपदेश देकर चले जाते हैं । वे उनके घर पर और हम अपने घर! फिर हम क्या उनका सुनें, ऐसे हैं? उनके कहे अनुसार चलें, वैसे हैं? यह तो खुद का ही प्रकट हुआ आत्मा, खुद का परम् गुरु। जो चौबीसों घंटे हाज़िर ! जो हाज़िर है, वह मोक्षमार्ग से ज़रा भी विचलित नहीं होने देते, ऐसी कड़ी निगरानी रखता है! ऐसे परम् गुरु की स्थापना की जाए, तब ही मोक्ष होता है, तब तक भटकना तो रहा ही! गुरु-शिष्य की चरम भेदरेखा इसीको कहते हैं ! ! !
डॉ नीरूबहन अमीन ।