Book Title: Guru Shishya
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 138
________________ गुरु-शिष्य १२७ पर जाए न, और उसे देखें, तब से विचार आते हैं कि किसी दिन काम आएंगे। इसलिए 'आइए, आइए डॉक्टर' कहेंगे। अरे, तेरे किस काम के? 'कभी बीमार हो जाऊँ, तब काम में आएंगे न!' वे सभी ताकवाले कहलाते हैं। ताकवाले के पास हमारा काम कभी भी नहीं होगा। जो ताक में नहीं हैं, जिन्हें कुछ चाहिए नहीं, वहाँ जाना। ये ताक में रहनेवाले तो वे भी स्वार्थी और हम भी स्वार्थी ! गुरु-शिष्य में स्वार्थ हो तो वह गुरुपन भी नहीं है और वह शिष्यपन भी नहीं है। स्वार्थ नहीं होना चाहिए। हम यदि सच्चे हैं तो उन गुरु से कह दें कि, 'साहब, जिस दिन थोड़ा भी स्वार्थ आपमें दिखेगा तो मैं तो चला जाऊँगा। दो गालियाँ देकर भी चला जाऊँगा। इसलिए आपको मुझे साथ में रखना हो तो रखो। हाँ, खाने-पीने का चाहिए तो आपको उसकी अड़चन नहीं पड़ने दूंगा। लेकिन आपको स्वार्थ नहीं रखना है।' हाँ, स्वार्थ नहीं दिखे वैसे गुरु चाहिए। लेकिन अभी तो लोभी गुरु और लालची शिष्य, दोनों इकट्ठे हो जाएँ, तो क्या दिन बदलेंगे? फिर 'दोनों खेलें दाव' ऐसा चलता रहता है! मूलतः लोग लालची हैं, इसलिए इन धूर्तों का चलता रहता है। सच्चा गुरु धूर्त नहीं होता। वैसे सच्चे गुरु हैं अभी तक। वैसे कोई नहीं है? यह दुनिया कुछ खाली नहीं हो गई है। परंतु वैसे मिलने भी मुश्किल हैं न! पुण्यशाली को मिलेंगे न! पदार्पण के भी पैसे फिर, कितने ही पदार्पण करवाकर पैसे ऐंठ लेते हैं। ये गुरु घर में चरण रखने के भी रुपये लेते हैं ! तब इन गरीबों के घर में चरण रखो न! ऐसा किसलिए करते हो? गरीबों के सामने नहीं देखना है? तब एक पधरावनी करानेवाले को मैंने कहा, 'अरे, रुपये गँवाता है और समय बेकार बिगाड़ रहा है। उनके पैर रखवाने के बदले तो किसी गरीब का पैर रखवा कि जिनमें दरिद्र नारायण पधारे हुए हों। इन सब गुरुओं के चरणों का क्या करना है?' परंतु

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