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गुरु-शिष्य
के लिए अपने दिल को ठंडक हो वैसे हों, गुरु बनाने के बाद कभी भी अपना मन उनके प्रति बिगड़े नहीं, वैसे हों तब गुरु बनाना। हाँ, नहीं तो फिर बाद में उनके साथ हमारी लठूबाज़ी होगी। दिल में ठंडक होने के बाद लठूबाज़ी होनेवाली जगह पर भी लठूबाज़ी नहीं करें। एक बार दिल में ठंडक हो गई
और फिर हम बुद्धि से नापने जाएँ कि, 'ये गुरु ऐसे कैसे निकले?' तो नहीं चलेगा। बुद्धि से कह देना कि, 'वे ऐसे निकले ही नहीं। हमने जैसे एक बार देख लिए, वही ये गुरु हैं!'
इसलिए हमने क्या कहा? कि तेरी आँखों में समाएँ वैसे हों, उन्हें गुरु बनाना। फिर गुरु एक दिन तुझ पर चिढ़ गए, तो वह मत देखना अब। पहले जो आँखों में समाए थे, जैसे देखे थे, वही के वही नज़र आने चाहिए। हमने पसंद किए थे न! ये लड़कियाँ पति को पसंद करें, उस घड़ी जो रूप देखा हो, वह फिर चेचक निकले, फिर भी वह उसे पहले दिनवाले रूप में ही याद रखती है फिर! क्या करे फिर? तभी दिन बीतेंगे। नहीं तो दिन नहीं बीतेंगे। इस तरह जिसे स्वच्छंद निकाल देना हो, उसे गुरु को इसी तरह देखना चाहिए। गुरु की भूल नहीं देखनी चाहिए। गुरु बनाए मतलब बनाए, फिर एक भी दोष नहीं दिखे, उस प्रकार से रहना। नहीं तो हम दूसरी जगह पर जा सकते हैं। यानी गुरु अपनी आँखों में समाएँ वैसे ढूँढकर, और फिर उनके दोष नहीं निकालने चाहिए। परंतु लोग समझते नहीं हैं और गुरु बना बैठते हैं।
वास्तव में तो श्रद्धा ही फलती है प्रश्नकर्ता : गुरु पर हमें यदि श्रद्धा हो, फिर गुरु में चाहे जो हो, परंतु अपनी श्रद्धा हो तो वह फलती है या नहीं फलती?
दादाश्री : अपनी श्रद्धा फलेगी, लेकिन गुरु पर अभाव नहीं आए तब हमारी श्रद्धा फलेगी। गुरु शायद कभी उल्टा-सीधा करें तो भी अभाव नहीं रहे तो अपनी श्रद्धा फलेगी।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् अपना यदि भाव हो, तो हम गुरु से भी आगे बढ़ सकते हैं न?