Book Title: Guru Shishya
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 119
________________ १०८ गुरु-शिष्य दादाश्री : टेस्ट! परीक्षा करनी तो आएगी नहीं। बालक हो, वह प्रोफेसर की परीक्षा किस तरह लेगा? प्रश्नकर्ता : तो टेस्ट और परीक्षा में क्या फर्क है? दादाश्री : टेस्ट में और परीक्षा में बहुत फर्क है। टेस्ट में तो हमें इतना ही कहना है कि, 'साहब, आपने कहा, परंतु एक भी बात मुझे सच्ची नहीं लगती।' इतना ही बोलो। उसका टेस्ट एकदम से निकलेगा। वे फन फैलाएँगे। तब हम समझ जाएँगे कि यह फनीधर साँप है, यह दुकान अपने लिए नहीं है। दुकान बदलो। दुकान बदलने का पता नहीं चल जाएगा हमें? प्रश्नकर्ता : परंतु दादा, गुरु से ऐसा कहना अविनय नहीं कहलाएगा? दादाश्री : ऐसा है, कि अविनय नहीं करें तो हम कब तक वहीं के वहीं बैठे रहें? हमें सिल्क(रेशम) चाहिए 'डबल घोड़े' का सिल्क चाहिए, तो हर एक दुकान में घूमते-घूमते जाएँ तो कोई कहेगा, 'भाई, उसकी दुकान पर, खादीभंडार में जाओ।' अब, वहाँ जाकर हम बैठे रहें लेकिन कुछ पूछे-करें नहीं, तो वहाँ कब तक बैठे रहें हम? इसके बदले तो पूछे कि, 'भाई, डबल घोड़े का सिल्क हो तो मैं बैठा रहूँ, फिर छह घंटे बैठा रहूँगा, लेकिन है क्या आपके पास?' तब वह कहे, 'ना, नहीं है।' तब हम उठकर दूसरी दुकान पर चले जाएँ। फिर भी यहाँ पर एक गुनाह होता है वापिस। इतनी मेरी समझ का आधार लेकर छिटकना नहीं है। जिन्हें आपने ऐसा कहा कि, 'आपका यह ठीक नहीं है।' तो उनके मन को दुःख हुआ, वह अविनय माना जाता है। इसलिए उनसे कहें कि, 'साहब, कभी-कभी मेरा दिमाग़ इस तरह खिसक जाता है।' तब वे कहेंगे, 'कोई हर्ज नहीं, कोई हर्ज नहीं।' तो भी भीतर उनका मन दुःखता रहता हो तो फिर हमें पाँच-पचास रुपये जेब में रखने पड़ेंगे और उनसे कहना चाहिए कि, आपको क्या चश्मे चाहिए? जो चाहिए वह बताइए।' नहीं तो फिर हम कहें, 'साहब, एक शाल है, इसे स्वीकार कीजिए। मेरे सिर पर हाथ रख दीजिए।' वह शाल दे दी, यानी वे खुश! तब हम समझ जाएँगे कि इस रुपये

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