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गुरु-शिष्य
दादाश्री : हाँ, हम निरंतर अप्रतिबद्ध रूप से विचरते हैं, द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव से निरंतर अप्रतिबद्ध रूप से विचरते हैं, ऐसे ज्ञानीपुरुष!
पूरा जगत् आश्रम बनाता है। मुक्ति पानी हो तो आश्रम का भार नहीं पुसाता। आश्रम के बजाय तो भीख माँगकर खाना अच्छा है। भीख माँगकर खाए उसके लिए भगवान ने छूट दी है। भगवान ने क्या कहा है कि भिक्षा माँगकर तू लोगों का कल्याण करना। तेरे पेट के लिए ही झंझट है न! आश्रम तो सत्युग में थे, तब खुद मोक्ष के लिए ही प्रयत्न करते थे, और इस कलियुग में तो श्रम उतारने का संग्रहस्थान है। अभी किसीको मोक्ष की कुछ नहीं पड़ी है। इसलिए इस काल में आश्रम बनाने जैसा नहीं है।
वह भगवान को नहीं पहुँचता ये तो सिर्फ बिज़नेस में पड़े हुए हैं लोग। वे लोग धर्म के बिज़नेस में पड़े हुए हैं। उन्हें खुद की पूजा करवाकर फायदा कमाना है। हाँ, और ऐसी दुकानें तो हमारे हिन्दुस्तान में बहुत सारी हैं। ऐसी क्या दो-तीन दुकानें ही हैं? ऐसी तो अपार दुकानें हैं। अब उस दुकानदार से हम ऐसा कैसे कह सकते हैं? वह कहे कि 'मुझे दुकान शुरू करनी है तो हम ना भी कैसे कहें? तो ग्राहकों का हमें क्या करना चाहिए?
प्रश्नकर्ता : उन्हें रोकना चाहिए।
दादाश्री : नहीं, नहीं रोक सकते। ऐसा तो दुनिया में इस तरह चलता ही रहेगा।
प्रश्नकर्ता : अभी तो करोड़ों रुपये जमा करके आश्रम बनवाते हैं और लोग उनके पीछे पड़े हैं!
दादाश्री : परंतु ये रुपये ही ऐसे हैं न! रुपयों में बरकत नहीं है इसलिए।
प्रश्नकर्ता : परंतु उस लक्ष्मी का सही रास्ते पर उपयोग करे, पढ़ाई के काम में खर्च करे, या किसी उपयोगी सेवा में खर्च करे तो?
दादाश्री : वह खर्च होगी, तो भी उसमें मेरा कहना है कि उसमें भगवान