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गुरु-शिष्य
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और यह कोई छुपाकर रखा हुआ ज्ञान नहीं है। यहाँ व्यवहार में तो गुरु गाँठ में बाँधकर रखते हैं थोड़ा । कहेंगे, 'शिष्य टेढ़ा है वह चढ़ बैठेगा । विरोध करेगा तब मैं क्या करूँगा?' क्योंकि उस गुरु को व्यवहार का सुख चाहिए । खाने-पीने का, दूसरा सबकुछ चाहिए । पैर दुखते हों तो शिष्य पैर दबा देते हैं। वह शिष्य यदि उनके जैसा हो जाएगा तो फिर वह पैर नहीं दबाएगा, तो क्या होगा? इसलिए वह थोड़ी चाबियाँ अपने पास रहने देते हैं।
इसलिए गुरुओं का मत ऐसा होता है कि मुझे दस प्रतिशत अपने पास अमानत रखना चाहिए और फिर बाक़ी का दे दें। उनके पास सेवन्टी परसेन्ट होता है, उसमें से दस प्रतिशत अमानत रखते हैं । जब कि मेरे पास पंचानवे प्रतिशत है, वह सारा ही आपको दे देता हूँ । आपको अनुकूल आया तो अनुकूल, नहीं तो जुलाब हो जाएगा। परंतु उससे कुछ फायदा तो होगा न!
अर्थात् अभी गुरु ऐसे घुस गए हैं कि भीतर डिब्बी में रखकर फिर दूसरा देते हैं। इसलिए शिष्य समझता है कि, 'अभी हमें नहीं मिलता है, धीरे-धीरे मिलेगा।' फिर गुरु धीरे-धीरे देते हैं। पर दे दे न यहीं से, ताकि इसका सब ठीक हो जाए। कोई देता ही नहीं न ! लालची लोग देते होंगे ? संसार का जिसे लालच है, वह मनुष्य जितना जानता है उतना पूरा-पूरा ज्ञान साफ-साफ दे नहीं सकता। लालच के कारण रहने देता है अपने पास ।
प्रश्नकर्ता : परंतु उसे शिष्य मिले हैं, वे लालची ही मिले हैं न? उन्हें सबकुछ ले लेना है न?
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दादाश्री : शिष्य तो लालची ही है । मेरा कहना है कि शिष्य तो लालची ही होते हैं। उसे तो बेचारे को इच्छा है ही कि, 'मुझे यह ज्ञान मिल जाए तो अच्छा।' वैसा लालच होता ही है। परंतु ये गुरु भी लालची? वैसा कैसे पुसाए? इसलिए खुद एडवान्स होते नहीं, इसलिए खुद आगे बढ़ते ही नहीं और शिष्यों को भी मुश्किल में डाल देते हैं । तो ऐसा हो गया है इस हिन्दुस्तान में अभी !
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और ऐसे ठिकाने पर लगाया
गुरु अच्छे हों तो दूसरी सब झंझट नहीं होती । इस काल में सच्चे गुरु